11 April 2008

पड़ोस में पाठशाला-एक हसीन ख्वाब

पड़ोस में पाठशाला-एक हसीन ख्वाब

शिक्षा के क्षेत्र में नाम कर रही विभिन्न संस्थाओं के राष्ट्रीय गठबंधन नेशनल एलायंस फॉर फंडामेंटल राइट टु एजुकेशन (नैफरे) ने कुछ महीने पहले जोधपुर में एक परिप्रेक्ष्य पत्र प्रस्तुत किया था. यह पत्र बारीकी से यह पडताल करता है कि कैसे समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था और पडाेस में पाठशाला संकल्पना की धज्जियां उडायी गयी. परिप्रेक्ष्य पत्र का संपादित अंश यहां प्रस्तुत किया जा रहा है.

कोठारी आयोग (1964-66) पहला शिक्षा आयोग था, जिसने अपनी विस्तृत रिपोर्ट में सामाजिक बदलाव के लिए समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था (कॉमन स्कूलिंग सिस्टम या सीएसएस) की अवधारणा को पेश किया. उसके बाद से संसद एक बार नहीं, तीन बार (1968, 1986 और 1992) की शिक्षा नीतियों में) इसे लागू करने की प्रतिबध्दता व्यक्त कर चुका है. परंतु सरकार बार-बार अपने वायदों से पीछे हटती जा रही है, जबकि सामाजिक बदलाव के लिए सीएसएस एक महत्वपूर्ण औजार तो है ही, समय की जरूरत भी है.

ऐतिहासिक संदर्भ
शिक्षा राज्य के हाथ में ऐसा वैचारिक औजार है जिसे सामाजिक ढांचे की संरचना व स्वरूप में बदलाव लाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. हालांकि यह दोधारी तलवार की तरह है, जो सामाजिक बदलाव के निर्णायक समय पर इस हथियार को चला रहे स्वामी को भी काट सकती है. इतिहास गवाह है कि हर सत्ता ने चतुराई से इस हथियार का इस्तेमाल किया है. भारत में शिक्षा का राष्ट्रीय ढांचा औपनिवेशिक पूंजीवाद के दौर में ही खडा हो पाया. लेकिन 'रक्त से भारतीय, आत्मा से अंग्रेज' वाली मैकालेवादी अवधारणा पर विकसित की गई इस शिक्षा व्यवस्था ने ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम की देहरी पर औपनिवेशिक जादूगरों को मात देने का काम किया और औपनिवेशिक प्रभुओं के खिलाफ एक प्रभावशाली मध्यवर्ग और आजादी की लडाई के नेताओं को जन्म दिया. आजादी के बाद शुरूआती दशकों में शिक्षा के आधारभूत ढांचे का तेजी सेविस्तार हुआ. बहरहाल, शिक्षा की औपनिवेशिक व्यवस्था बरकरार रहने के कारण आत्मनिर्भर भारत के नेहरूवादी पुननिर्माण परियोजना में बाधाएं खडी हो रही थीं. इसका नतीजा यह हुआ कि 'सभी स्तरों पर और सभी रूपों में शिक्षा के विकास के लिए सिध्दांतों व नीतियों और शिक्षा के राष्ट्रीय पैटर्न पर सलाह देने के लिए' पहले विस्तृत शिक्षा आयोग का गठन किया गया. यह समुचित सामाजिक बदलाव और पुननिर्माण की ओर उन्मुख राष्ट्रीय स्कूल व्यवस्था विकसित करने के लिए अवधारणा और रणनीति बनाने की एक कोशिश थी.
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी शिक्षा के क्षेत्र में कई अवधारणाएं व प्रयोग विकसित किए गए, जिन्हें आज भी अधिकतर आधुनिक शिक्षाशास्त्री संदर्भ के रूप में इस्तेमाल करते हैं. बुनियादी शिक्षा की अवधारणा या नयी तालीम उनमें से प्रमुख है, जिसे न जाने कितनी बार खंगाला जा चुका है. गांधीजी की ग्राम आधारित कुटीर उद्योग की अवधारणा की तरह 'नयी तालीम' का भी वही हश्र हुआ, क्योंकि यह महसूस किया गया कि देश की राज्य व्यवस्था पर काबिज नए सामाजिक वर्ग के वृहत्तर हितों के साथ इन दोनों अवधारणाओं का कोई रिश्ता ही नहीं बनता. स्वप्नजीवी लोग अपने हवाई किले टूटने पर हायतौबा मचाते हैं, लेकिन शैक्षिक एजेंडा का मतलब दर्शन या शिक्षा शास्त्र के अबूझ आदर्श सेकहीं ज्यादा है.
हालांकि कोठारी आयोग की लंबी व गंभीर कोशिशों के फलस्वरूप घोषित की गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) ने उच्च स्तर पर देश की वैज्ञानिक व तकनीकी शिक्षा को आगे बढाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी, लेकिन राष्ट्रीय स्कूल व्यवस्था या जैसा कि कोठारी आयोग ने जिक्र किया था, समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था के सपने को साकार करने की कोई कोशिश नहीं हो सकी. 'उत्कृष्ट व स्पष्ट तर्कों की धारा' 'पुरानी आदतों के सुनसान रेगिस्तान' में खो गई. महान कवि टैगोर हमारी प्राचीन सभ्यता के मलिन सामाजिक भेदभाव का वर्णन करने के लिए अकसर इस काव्यात्मक उक्ति का इस्तेमाल करते थे.
यदि 'आधुनिक समाजवादी' नेहरू भूमि सुधार के एजेंडे को लागू नहीं करा सके, जिसका उन्होंने जुमलेबाजी की बजाय दिल की गहराइयों से 1936 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में बार-बार जिक्र किया था. और आखिकार देश के शक्तिशाली जमींदारों के साथ समझौता करते हुए उन्होंने भूमि को राज्य सूची में डाल दिया, ताकि उसका मनमाना इस्तेमाल किया जा सके तो राष्ट्रीय स्कूल व्यवस्था का एजेंडा भी भारत-चीन संघर्ष की भेंट चढ ग़या. 'जय जवान जय किसान' के नारे से ताजादम हुए रक्षा क्षेत्र को देश की नजर से सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान पर बैठा दिया गया. दरअसल, देश पर हमले का भय दिखाकर एक के बाद एक सभी सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा खर्च में भारी बढाेत्तरी करती गईं और इस वजह से शिक्षा व स्वास्थ्य दोनों सामाजिक क्षेत्रों को जरूरी वित्त का टोटा पडने लगा.
गौर से देखा जाए तो 1986 में आई शिक्षानीति से इसकी शुरूआत हुई. आधुनिक मीडिया के जादुई असर में सम्मोहित इस नीति ने शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने के नाम पर बडे तामझाम के साथ अनौपचारिक शिक्षा की शुरूआत की जो आखिरकार मौजूदा शैक्षणिक ढांचे को गिराने का संगठित अभियान साबित हुआ. बहरहाल, वह दौर कुछ अलग था, इसलिए अवधारणा के स्तर पर ही सही, 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति को राष्ट्रीय स्कूल व्यवस्था के प्रति अपनी प्रतिबध्दता की घोषणा करनी पडी. नब्बे का दशक न सिर्फ हमारे देश के, बल्कि पूरी दुनिया के इतिहास में निर्णायक साबित हुआ. तमाम चेतावनियों को नजरंदाज करते हुए - जनप्रिय होने के सारे आवरण उतार कर फेंकते हुए भूमंडलीकरण, निजीकरण व उदारीकारण के समर्थक नव-उदारवादी सत्ताधारियों ने देश के सामाजिक-राजनीतिक ढांचे को उलट-पुलट कर रख दिया. इस युग में लगभग ईश्वर की हैसियत रखने वाले 'बाजार' के अभ्युदय ने पहले से बीमार चल रहे सामाजिक क्षेत्र को अनाथ बना दिया. और उसे अपनी मौत मरने के लिए छोड दिया. खत्म हो रहे सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे के बीच स्वास्थ्य क्षेत्र में चलाए जा रहे प्रतिरक्षण अभियान की ही तरह मीडिया में चमक बिखेरने वाले साक्षरता अभियान और सर्व शिक्षा अभियान या ईजीएस जैसी अवास्तविक शैक्षिक परियोजनाएं देश के सार्वजानिक शैक्षिक ढांचे पर हो रहे जबरदस्त हमले छिपाने के लिए किए गए 'मुखौटे' भर हैं. कृपया कोई भ्रम न पालें, क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में आ रहे ये बदलाव अभूतपूर्व हैं जिनमें विश्व बैंक और उसके साथ सांठ-गांठ कर रहे नव उदारवादी तत्वों की असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और खुलेआम दखलंदाजी साफ नजर आ रही है. कहना न होगा कि इन बदलावों में देश के विकास और यहां तक कि उसकी बुनियादी एकता को नष्ट करने की खतरनाक क्षमता है.
भूमंडलीकृत अंतरराष्ट्रीय सत्ता के अधीन काम कर रही हमारी सरकारों के तमाम शैक्षिक पहलों का सार यही निकलता है: 'आम जन के लिए साक्षरता और खास लोगों के लिए शिक्षा'. इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि मंडलीकृत और बहुजनीकृत राजनीतिक माहौल में समाज के कमजोर तबके मसलन-जनजाति, दलित, अल्पसंख्यक और महिलाएं खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं.दूसरी तरफ, उर्ध्वगामी मध्यवर्ग सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों से अलग होकर 'शैक्षिक उत्कृष्टता के हरे-भरे बाग' में विचरण कर रहा है. बुरीतरह से टूटे-फूटे सार्वजनिक शैक्षिक ढांचे से अलग होने की कोशिश कर रही जनता को बाजार के दर्शन बघारने वाले 'यूजर चार्जेज' की बेडी अौर निजीकरण व सांप्रदायीकरण की हथकडी से बांधने की कोशिश कर रहे हैं.
समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था की परिभाषा
औपनिवेशिक काल में शुरू की गई मैकालेवादी शिक्षा व्यवस्था की अंतर्निहित अलगाववादी प्रकृति को पहचानते हुए और नयी तालीम व शांति निकेतन जैसी शैक्षिक तजुरबों की संभावनाओं के मद्देनजर 1987 के शिक्षा आयोग ने एक समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था और 'पडाेस में पाठशाला व्यवस्था' की परिकल्पना की:
जो जाति, धर्म, पंथ, संप्रदाय, आर्थिक हालत व सामाजिक 'हैसियत' का लिहाज किए बिना सभी बच्चों के प्रवेश के लिए खुला रहेगा.
जहां अच्छी शिक्षा हासिल करना धन-दौलत पर नहीं, बल्कि प्रतिभा पर निर्भर होगा.
जहां सभी स्कूलों में मानक स्तर की शिक्षा दी जाएगी और जिसमें अच्छी गुणवत्ता वाले संस्थानों की संख्या भी अच्छी-खासी होगी.
जिसमें कोई टयूशन फीस नहीं ली जाएगी.
जो आम अभिभावकों की जरूरतों पर खरी उतरे ताकि उन्हें अपने बच्चों को समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था के दायरे से बाहर चल रहे महंगे स्कूलों में भेजने को मजबूर न होना पडे.
इस आयोग ने 1967 में मौजूद शिक्षा परिदृश्य का वर्णन करते हुए टिप्पणी की थी:
'खुद शिक्षा सामाजिक अलगाव को तेज करने की ओर बढ रही है और इससे वर्ग विभेद की जडें ग़हरी हो रही हैं तथा खाई चौडी हो रही है. प्राथमिक स्तर पर जनता अपने बच्चों को उनमुफ्त स्कूलों में भेजती है, जिनका जिम्मा सरकार व स्थानीय निकाय उठाते हैं और जिनमें आमतौर पर घटिया शिक्षा दी जाती है.कुछ निजी स्कूल निश्चित रूप से बेहतर हैं, लेकिन उनमें कइयों की फीस इतनी ज्यादा है कि उन तक पहुंच पाना सिर्फ मध्य व उच्च वर्ग के बूते की बात है. माध्यमिक स्तर पर ज्यादातर अच्छे स्कूल निजी किस्म के हैं. उनमें भी कइयों की फीस इतनी ज्यादा है कि देश की शीर्ष 10 फीसदी आबादी को छोडक़र कोई उसका बोझ नहीं उठा सकता. हालांकि मध्यवर्ग के कतिपय माता-पिता बहुत बडा बलिदान करते हैं, तब जाकर अपने बच्चों को उन स्कूलों में भेज पाते हैं. इस तरह खुद शिक्षा में ही अलगाव के बीज छिपे हुए हैं - फीस वसूलने वाले कम संख्या में बेहतर निजी स्कूल उच्चवर्ग की जरूरतों को पूरा करते हैं और मुफ्त के सार्वजनिक स्कूल जिनकी संख्या काफी है बाकियों के काम आते हैं. इससे भी बुरा यह हुआ कि यह अलगाव दिनों-दिन बढता जा रहा है, जो आम व खास लोगों के बीच की खाई को और बढा रहा है.'' आज शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के लिए ये वाक्य भारत में शिक्षा की मौजूदा स्थिति को बयान करने वाले प्रतीत हो रहे हैं. दरअसल तीन दशक पहले आम और खास में जो अलगाव था वह आज कई गुना हो गया है.
अनौपचारिक शिक्षा व्यवस्था के जरिये अलगाव को बढावा
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है पिछले 60 वर्षों के दौरान शिक्षा में समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था को लागू करने की दिशा में हमारे कदम लगातार कमजोर होते गए. थाइलैंड के जोमतिएनमें यूनिसेफ, यूनेस्को, यूएनडीपी और विश्व बैंक द्वारा 1990 में आयोजित 'सबको शिक्षा' सम्मेलन के बाद तो समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था को संघातिक आघात पहुंचा. हालांकि 1986 की शिक्षा नीति में भी समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था को लागू करने के लिए कम से कम आश्वासन तो था लेकिन 1992 के नीति वक्तव्य (जोमतिएन सम्मेलन के बाद संशोधित) में इसे सिरे से गायब कर दिया गया.
इसके बाद एक तरफ तो सरकार ने अनौपाचारिक शिक्षा व्यवस्था या 'वैकल्पिक शिक्षा' की शुरूआत की, जिसने न सिर्फ औपचारिक स्कूलों को खत्म किया बल्कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के विकल्प के रूप में जन साक्षरता की शोशेबाजी को बढावा दिया. दूसरी तरफ सरकार ने समाज के चुनिंदा तबकों के लिए स्कूलों के एक नए स्तर नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूलों का निर्माण किया, जहां कुछ लोगों पर बेतहाशा खर्च करने की जरूरत पडी. देश की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को नीचा दिखाते हुए हमारे शहरों, कस्बों व गांवों के हर मुहल्ले में टयूशन की दुकानें, कोचिंग संस्थान और अजीबो-गरीब नाम वाले कॉन्वेंट स्कूलों की भरमार हो गई है. देश के मौजूदा सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों, खासकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बढते व्यावसायीकरण के मद्देनजर आम जन और खास लोगों के बीच पूरी तरह अलगाव हो चुका है जहां शिक्षा को खास लोगों के लिए आरक्षित कर दिया गया है और आम जनता को थमाया गया है साक्षरता का झुनझुना. संविधान के अनुच्छेद 45 में तय समय-सीमा को धता बताते हुए पिछले 50 वर्षों में सरकार ने अपनी करनी के जरिये अपने इरादे स्पष्ट किए हैं - 'चुनिंदा लोगों के लिए सरकार से वित्तपोषित अच्छी शिक्षा, जबकि बहुसंख्यक आबादी के लिए अनौपचारिक शिक्षा.'
जनता के लिए अनौपचारिक शिक्षा
बच्चों को कम से कम आठ साल तक प्रारंभिक शिक्षा मुहैया कराने की संवैधानिक वचनबध्दता (अनुच्छेद 45) का खुलेआम उल्लंघन करते हुए विश्व बैंक से आर्थिक सहायता लेकर डिस्ट्रिक्ट प्राइमरी एजुकेशन प्रोग्राम ( जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम या डीपीईपी) की घोषणा की गई जिसका उद्देश्य था औपचारिक शिक्षा को मजबूत करना, लेकिन जो आखिरकार इसकी अनदेखी करने वाला साबित हुआ, क्योंकि डीपीईपी ने अपना ध्यान पांच वर्ष तकप्रारंभिक शिक्षा पर लगाया. यही नहीं, शिक्षाशास्त्रीय शब्दावली में छिपाकर इस कार्यक्रम के जरिये अर्ध्दशिक्षकों व बहुस्तरीय शिक्षण की अवैध धारणाओं की शुरूआत की गई. हाल में शुरू किए गए सर्व शिक्षा अभियान (एमएसए) की जो सभी बच्चों को अच्छी प्रारंभिक शिक्षा मुहैया कराने की एक और सरकारी कोशिश लगती है, पिछले एक साल की कोई उपलब्धि काबिले जिक्र नहीं है. 2001-2002 में इस कार्यक्रम के लिए वित्तीय आवंटन को संसद में आम राय से पारित कर दिया गया. इस अवधि के लिए सर्व शिक्षा अभियान को 9,800 करोड रूपये आवंटित किए गए. इसमें से 96 प्रतिशत धन औपचारिक स्कूल व्यवस्था को मजबूत करने के लिए दिया गया था. इसके तहत नए प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्कूलों की शुरूआत, आकर्षक वेतन (5,000 रूपये-7, 000 रूपये) के जरिये प्रशिक्षित शिक्षकों की भर्ती और स्कूलों में शिक्षण सामग्री मुहैया कराया जाना था. लेकिन विडंबना यह है कि इस अवधि में इन मदों के लिए आवंटित राशि का सिर्फ 10 फीसदी (1,000 करोड रूपये) ही ज्ाारी किया गया. यही नहीं,जो थोडा बहुत धन खर्च किया गया उसे भी औपचारिक शिक्षा पर खर्च न करके बडे-बडे नामों वाली सस्ती व्यवस्था (एजुकेशन गारंटी स्कीम और वैकल्पिक शिक्षा जिसमें क्लास रूम व प्रशिक्षित शिक्षकों के बजाय झोपडी व अर्ध्द-शिक्षक की व्यवस्था है) पर बहाया गया. शिक्षा के लिए हर साल 20 हजार करोड रूपये की जरूरत है (तापस मजुमदार समिति की सिफारिश). इसके बरक्स 2001-2002 में प्रारंभिक शिक्षा के लोकव्यापीकरण का लक्ष्य हासिल करने के लिए सरकार ने इस जरूरत का सिर्फ पांच फीसदी धन मुहैया कराया. शिक्षा के लिए इतना बडा आवंटन और धन की इतनी कम उपलब्धता से स्पष्ट है कि सरकार का मकसद काम कम और शोर ज्यादा करना है. अगर पहले साल में सर्व शिक्षा अभियान का यही हाल है तो औपचारिक स्कूल व्यवस्था को इस सरकारी स्कीम में कोई उम्मीद नहीं पालनी चाहिए. पहले जिनकी गिनती स्कूल जाने वाले बच्चों में की जाती थी, उन्हें अब साक्षर होने के लिए वयस्क साक्षरता क्लासों का सहारा है, क्योंकि सरकार ने 9-14 वर्ष तक के बच्चों को राष्ट्रीय साक्षरता कक्षाओं में नामांकन कराने की इजाजत दे दी है.पहले वयस्क साक्षरता क्लास, अनौपचारिक केंद्र, तथाकथित वैकल्पिक स्कूल, मल्टीग्रेड क्लास औरअब एजुकेशन गारंटी स्कीम, (जिसमें अर्द्वशिक्षकों को नियुक्त किया जाएगा) इन सभी को तब तक स्कूली शिक्षा के विकल्प के रूप में स्वीकार कर लिया गया है, जब तक इनका संबंध सिर्फ गरीबों की शिक्षा से है. इस माहौल में बालश्रम की चक्की में पिस रही एक लडक़ी को संवैधानिक रूप से शिक्षित माना जाएगा, अगर वह तीन साल के लिए किसी अनौपचारिक स्कूल में और उसके बाद दो साल तक राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के वयस्क शिक्षा कार्यक्रम में नामांकन करवा ले. इससे कोई फर्क नहीं पडता कि उसने कभी औपचारिक स्कूल का मुंह देखा या नहीं.
चुनिंदा लोगों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा
1986 की शिक्षा नीति में पेश किए गए नवोदय विद्यालयों को 'पेस सेंटर' कहते हुए पेश किया गया, जिनमें सालाना एक छात्र पर सरकार के खजाने से 9,000 रूपये खर्च की जरूरत पडती है, जबकि गांव में चल रहे सरकारी स्कूलों में पढ रहे प्रति छात्र पर खर्च होने वाले महज 846 रूपये की इससे कोई तुलना ही नहीं है. हालांकि इसे प्रतिभाशाली छात्रों का भविष्य संवारने के विचार के साथ शुरू किया गया था. लेकिन उसकी प्रवेश परीक्षा का खाका कहीं से भी प्रतिभा को आकर्षित करने वाला नहीं है. यही नहीं, ये प्रवेश परीक्षाएं गांव विरोधी और बाल-विरोधी हैं. इस वजह से इनमें पढने वाले विद्यार्थियों में अधिकांश मध्य-आय वर्ग से हैं और निम्न आय वर्ग के बच्चे यहां अल्पसंख्यक. 1986 की शिक्षा नीति की समीक्षा करते हुए आचार्य राममूर्ति समिति ने इसका उल्लेख किया. खासकर समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था स्थापित करने के संदर्भ में ही समिति ने आम राय से इस बात की वकालत भी की कि अब एक भी नवोदय विद्यालय स्थापित न किया जाए. चुनिंदा बच्चों की प्रतिभा को निखारने से जो असमानता फैलती है, उसका तो बयान ही नहीं किया जा सकता. यह स्कीम काफी महंगी है - इस पर भारी-भरकम रकम खर्च होता है और प्रति विद्यार्थी खर्च भी बहुत ज्यादा है; सरकारी खजाने से चुनिंदा लोगों को इतनी महंगी शिक्षा, जबकि लाखों बच्चे औसतन अच्छी शिक्षा पाने के अपने वैधानिक अधिकार से वंचित हों, पूरी तरह से विभेदकारी है और उन समानता व सामाजिक न्याय के सिध्दांतों के खिलाफ है, जिनके लिए कोई भी जनतांत्रिक गणतंत्र वचनबध्द होता है.'
ग्लोबल मार्केट (विश्व बाजार) की ताकतों केदबाव के कारण शिक्षा के लिए अनौपचारीकरण और चुनिंदा लोगों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की दोहरी परिघटना के साथ-साथ देश के अंदर बैठी सांप्रदायिक शक्तियों, सरकारी स्कूलों में बच्चों को दी जा रही शिक्षा को दागदार बनाकर खतरनाक काम कर रही है.एनसीईआरटी के पाठयक्रम और पाठयपुस्तकें सामाजिक सच्चाइयों का आईना नहीं रह गयी हैं. वे देश की सत्तीसीन पार्टी के विचारों को अधिक से अधिक फैलाने वाले मुखपत्र की तरह लगते हैं. इस अवधारणा पत्र के अगले हिस्से में कॉमन स्कूल सिस्टम के छह प्रमुख पहलुओं का विश्लेषण किया गया है:
निजी स्कूल
आज भारत में निजी स्कूल अपने आप में एक धंधा है, जिससे शिक्षा की निजी दुकान कहना ज्यादा उचित होगा. इन स्कूलों की बडी तादाद में उपस्थिति इस बात का सबूत है कि सरकार देश के बच्चों को संतोषजनक शैक्षिक अवसर मुहैया कराने में विफल रही है लेकिन आमधारणा के विपरीत अधिकांश निजी स्कूलों में बहुत अच्छी शिक्षा नहीं दी जाती है. मौजूदा परिदृश्य में निजी स्कूलों का समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था में शामिल करने की कोठारी आयोग की दृष्टि दूर का ढोल बनकर रह गई है. पिछले 15 वर्षों में निजी स्कूल सामाजिक एकता नहीं, बल्कि अलगाव के औजार के रूप में उभर कर सामने आए हैं. शैक्षिक अवसरों में समानता हासिल करने की राह में ये सबसे बडी बाधा हैं.वास्तव में सरकार को निजी स्कूलों का अधिग्रहण करके उन्हें समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था में शामिल कर देना चाहिए.
वित्त
समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था की शर्त है कि शिक्षा की वित्तीय जिम्मेदारी सरकार की हो. आजादी के बाद गठित सभी शिक्षा आयोगों की सिफारिशों में भी यही बात कही गई है. इस बात पर आम राय है कि प्रारंभिक शिक्षा की वित्तीय व्यवस्था राज्य को करनी चाहिए और स्कूली शिक्षा क्षेत्र में निजी हितों को प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. जैसा कि पहले जिक्र किया जा चुका है, तापस मजुमदार समिति 1990 के बाद देश में कुकुरमुत्ते की तरह उग आई दोयम दर्जे की समांतर शिक्षा व्यवस्था को सस्ती वित्तीय सहायता देने की मनाही करता है.शिक्षा के लिए निजी जरिये से आ रहे धन को भी राज्य के माध्यम से ही खर्च किया जाए.
समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था काक्रियान्वयन
सन् 1964-66 के शिक्षा आयोग ने समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था को कारगर ढंग से लागू करने के लिए कुछ जरूरी सुधारों का सुझाव दिया था:
ॅ प्रारंभिक शिक्षा (खासकर प्राइमरी) पर खर्च में महत्त्वपूर्ण बढाेतरी. इससे शिक्षा के आधारभूत ढांचे व उसकी गुणवत्ता में जरूरी सुधारलाने में मदद मिलेगी. इस प्रक्रिया में सरकारी, स्थानीय निकायों व सहायता प्राप्त स्कूलों को सही मायने में पडाेस में पाठशाला में तब्दील करने में मदद मिलेगी.
ॅ पिछडे ऌलाकों, शहरी झोपड-पट्टियों, आदिवासी क्षेत्रों, पहाडी ऌलाकों, रेगिस्तानी व दलदली क्षेत्रों, सूखा व बाढ प्रभावित क्षेत्रों, तटीय क्षेत्रों व द्वीपों में स्कूली व्यवस्था में सुधार के लिए विशेष वित्तीय आवंटन का प्रावधान.
प्राथमिक स्तर पर सभी बच्चों खासकर भाषाई अल्पसंख्यकों को मातृभाषा में शिक्षा सुनिश्चित की जाए. माध्यमिक स्तर पर क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा को बढावा दिया जाए और मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा के अलावा अन्य भाषाओं में शिक्षा देने वाले स्कूलों को राजकीय सहायता बंद कर दी जाए.
अगले दस साल में चरणबध्द तरीके से समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था का क्रियान्वयन. त्वरित चुनाव प्रक्रिया, टयूशन फीस, कैपीटेशन फीस के बारे में न्यूनतम वैधानिक व्यवस्था.
ऐसे प्रोत्साहनों, दबावों और कानूनी रास्तों की तलाश की जाए, जिनके जरिये मंहगे निजी स्कूलों को समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था में शामिल किया जा सके.
हालांकि ये सभी सुझाव तीन दशक पूर्व दिए गए थे, लेकिन उसके बाद से एक भी सरकार ने इसके क्रियान्वयन के लिए कार्यक्रम लागू करने के प्रति पूरी वचनबध्दता नहीं दिखाई. आज सबसे बडी ज़रूरत इस बात की है कि इस विफलता के कारणों की पडताल की जाए और समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था के रास्ते की बाधाओं को दूर करने का काम किया जाए.
समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था को हासिल करने में विफलता के पीछे अकसर एक वजह बतायी जाती है कि जरूरतों को पूरा करने के लिए भारी-भरकम निवेश चाहिए. 1999 में गठित तापस मजूमदार समिति ने सुझाव दिया था कि अगर हर साल शिक्षा पर आवंटन में सकल घरेलू उत्पाद के 07 फीसदी के बराबर बढाेतरी की जाए तो अगले दस वर्षों में सरकार 6-14 आयुवर्ग के सभी बच्चों को शिक्षित करने का लक्ष्य हासिल कर लेगी.समिति ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि शिक्षा खर्च में बढाेतरी और उसकी गुणवत्ता में सुधार के बीच कोई समझौता नहीं किया जा सकता. क्योंकि जब तक संतोषजनक गुणवत्ता की शिक्षा मुहैया करने के लिए जरूरी शर्तों को पूरा नहीं किया जाता, तब तक सभी बच्चों का नामांकन और बीच में उनके स्कूल न छोडने की गारंटी नहीं दी जा सकती. 0-6 आयु-वर्ग के बारे में 2001 की योजना आयोग की रिपोर्ट ने सुझाव दिया है कि इसके लिए इस आयुवर्ग के सभी बच्चों को शामिल करने के लिए प्रति ईसीसीई सेंटर सात वर्षों की अवधि के लिए सालाना 10 हजार रूपये की जरूरत पडेग़ी.
आजादी के बाद गठित सभी शिक्षा आयोगों में एक बात पर आम राय रही है कि शिक्षा में समानता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए समान स्कूली शिक्षा व्यवस्थाको स्थापित करना पहला कदम है. लेकिन इन सिफारिशों को हकीकत में बदलने के लिए क्रियान्वयन की कोशिश आज भी एक हसीन ख्वाब ही बना हुआ है.

2 comments:

अमिताभ said...

sadhuvad !! jankari dene ke liye .

Radhe Shyam Thawait said...

मंडल विचार का यह विचार सचमुच विचार योग्य है.