05 April 2008

न्यायालय में सामाजिक न्याय

डा प्रभु नारायण विद्यार्थी

भारत का समाज हजारों वर्षों से वर्गीकृत है. समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित है. वर्ण व्यवस्था में जातियों की एक श्रृंखला ऊपर से नीचे की ओर आती है. इस श्रृंखला में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं.
ब्राह्मणों ने अपने को समाज में सर्वोच्च बनाए रखा. उनके द्वारा बनाये धर्मग्रंथों में उन्हें विशेषाधिकार का प्रावधान हुआ. उनके नीचे क्षत्रियों की श्रेणी है जो ब्राह्मणों के द्वारा बनाये विधि और नियम को कार्यान्वित करते और सत्ता शीर्ष में बैठते थे. ब्राह्मण उनके परामर्शदाता और मंत्री होते. क्षत्रिय उनके विचारों का अनुसरण करते. इन दोनों ने समाज में अपने लिए प्रतिष्ठित स्थान रखा. तीसरा स्थान वैश्यों को मिला जो समाज में उत्पादन और वितरण का कार्य करते. उत्पादक वैश्य कृषि और पशुपालन इत्यादि कार्य करते पर कतिपय उत्पादित वस्तुओं के वितरण एवं व्यापार से जुडे रहे. इस प्रकार वैश्य की भी प्रमुख श्रेणी बन गई-एक उत्पादक वैश्य और दूसरा वणिक वैश्य. ये वैश्य समाज के दोनों वर्ग कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य के माध्यम से ऊपर के दोनों वर्गों को राजस्व, कर तथा यजमानिका भुगतान करते. समाज की अर्थव्यवस्था इन पर आश्रित रही है. चौथा वर्ग शूद्र कहलाया जिनके पास सिर्फ श्रम था. वे खेत, खलिहान, पशुपालन, वाणिज्य, समाज तथा सेवा में अपना श्रम देते और परिवरिश पाते. यही वर्ग ऊपर के दोनों वर्गों को बेगार भी देते.
वैश्य और शूद्र साजिश के शिकार रहे . उन्हें बुध्दिजीवियों के द्वारा खण्ड-खण्ड कर दिया गया. पेशे के आधार पर वैश्य और शूद्र जातियों का निर्धारण हुआ. उत्पादक वैश्य में गोपालन करने वाले गोप, कृषि करने वाले कोयरी तथा कुर्मी, तेल के व्यापारी तेली, सुरा के व्यापारी सू/डी, राजदरबारों एवं सेना को कलेवा पहु/चाने वाला कलवार, केसर का व्यापारी केसरी, माहुर का व्यापारी माहुरी, पान का व्यापारी पनेरी, ताम्बुल का व्यापारी तम्बोली, पान में रसों को मिलाकर व्यापार करने वाला चौरसिया, नमक का व्यापारी नौनिया, सिन्दूर का व्यापारी सिन्दुरिया, पोत (जहाज) का व्यापारी पोद्दार, सोने का कारोबारी स्वर्णकार, ताम्बे का व्यापारी ठठेरा, का/से काव्यापारी कसेरा, तांत का काम करने वाला तांती, लोहे का लोहार, चमडे क़ा श्रमिक चमार, दु: साध्य (कठिन) कार्य करने वाले दुसाध, कपडा साफ करने वाला रंजक, बाल काटने वाला हजाम (नाई), बांस का काम करने वाला ब/सफोड, क़पडा बुनने वाला बुनकर, रूई धुनने वाला धुनिया, इत्यादि. विडम्बना यह रही कि ये सभी अपने अपने पेशों से जुडे छोटी-छोटी संख्या के समुदाय अपनी-अपनी जाति उपजाति में बंटी रह गई जिसका दुष्परिणाम इनमें राजनीतिक एकता का अभाव और उपजातीय दुराग्रह विद्यमान है. फलत: वैश्य जो बडी संख्या में हैं पर दबंग नहीं है, उन्हें राजनैतिक हिस्सेदारी नहीं मिल सकी है. शूद्रों को अनुसूचित जाति के नाम पर आरक्षण तो मिल गया पर वे भी खण्ड-खण्ड विखण्डित हैं. वहां भी दबंग अनुसूचित जातिया/ हिस्सा मार बैठी है.
इस प्रकार भारत की वर्ण व्यवस्था में जो वर्ग बुध्दि से जुडा रहा उसे श्रेष्ठ समझा गया और दुनिया/ की सारी सुविधाए/ तथा प्रतिष्ठा उन्हें उपलब्ध हुई. शासन प्रशासन, सैन्य व्यवस्था, अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन में उनका एकाधिकार व उनका पूर्ण आरक्षण रहा. उसमें घुसपैठ विधि विरूध्द मानी जाती जिसके नतीजे शम्बूक और एकलव्य को भोगने पडे. ठीक इसके विपरीत इस देश में श्रम करने वालों की प्र्रतिष्ठा नहीं रही. उन्हें पूंजी तथा बचत की भी संभावना नगण्य थी. अत: समृध्दि से दूर रह परम्परागत रूप से निर्धन और सुविधा वंचित रहे. जो जाति श्रम की अपेक्षा बुध्दि लगाते, नैतिकता की उपेक्षाकरते उन्हें अतिरिक्त सुविधाएं मिलती पर श्रमजीवी जातिया/ ईमानदारी से खून पसीना बहाकर भी डोम, चमार, दुसाध, महार, धोबी, नाई, नौनिया, पासी जैसे सम्बोधनों से निम्न दृष्टि से देखी जाती रहीं. ईमानदारी से श्रम करती जातियों को भर पेट भोजन नहीं मिलता, पर जो छल-प्रपंच से जीतीं वे समृध्द से समृध्दतर तथा प्रतिष्ठित से और प्रतिष्ठित होती चलीं गयीं. आज भी कमोबेश भारत में श्रमजीवियों की प्रतिष्ठा नहीं है. बुध्दिजीवी विलास कर रहे हैं और श्रमजीवी उपवास करने को विवश हैं. हालांकि वर्ण व्यवस्था की पकड क़ुछ ढीली हुई पर उत्पादक वैश्यों एवं शूद्रों में नव सामन्तों की एक नई श्रेणी सृजित हुई है.
वर्ण व्यवस्था में प्रारम्भ से ही विशेषाधिकार के कारण क्षत्रिय लाभ के स्थानों और पदों पर काबिज रहे. बीच-बीच में वैश्य और शूद्रों के द्वारा इस स्वार्थमूलक जड व्यवस्था के विरूध्द समानता और न्याय के लिए संघर्ष होता रहा . आज से करीब 2500 वर्ष पूर्व चार्वाक, महावीर और बुध्द ने वर्ण व्यवस्था में जातिगत श्रेष्ठता के सिध्दांत को दरकाया. अनन्तर मुस्लिम और अंग्रेज शासकों ने इसे प्रश्रय नहीं दिया. पर वे किसी नई व्यवस्था के लिए जोखिम उठाने के पक्षधर नहीं थे. उन्हें सत्ता में काबिज रहना था और प्रबुध्द वर्ग के वर्चस्व को तोडने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी. वे यथास्थिति के पोषक थे. पर आधुनिक युग में सामाजिक परिवर्तन की शुरूआत ज्योतिबा फुले से माना जा सकता है. छत्रपति शाहू ने वर्ण व्यवस्था के भेद भाव पूर्ण नीति के विरूध्द अभिवंचितों की भागीदारी के लिए सर्वप्रथम विशेष सुविधा की नीति अपनायी.
बाद में पेरियार रामास्वामी नायकर ने महसूस किया कि ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता और वर्चस्व के कारण किसी भी सुधारवादी कार्यक्रम को लागू होने नहीं देते. फलत: पहली बार राजनीतिक रूप से वंचित समाज को आरक्षण की वकालत की और कांग्रेस को छोडा. आजादी के बाद बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने आरक्षण की वकालत की और कांग्रेस को छोडा. आजादी के बाद बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर ने पूरी प्रखरता के साथ इस मुद्दे को उठाया और संविधान में इसका प्रावधान किया कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को शासन और प्रशासन में भागीदारी मिले. पर भारत की अधिसंख्य पिछडी ज़ातियों को यह सुविधा उपलब्ध नहीं हो सकी. पिछडाें का दबाव भी उतना प्रखर नहीं था कि सरकार उन्हें आरक्षण देने को विवश होती. फिर भी कमोवेश आवाजें उठती रहीं और काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछडे वर्ग को विशेष सुविधा प्रदान करने हेतु आयोग का गठन हुआ. काका कालेलकर वर्ण व्यवस्था से ऊपर थे ऐसा नहीं कहा जा सकता. फिर नैसर्र्गिक न्याय और आत्मा की आवाज पर कुछ विचार किया. पंडित नेहरू ने यथास्थिति के अन्यथा जाने में उनके हितकी हत्या होती महसूस की अत: काका कालेलकर की रपट को ठंढे बस्ते में डाल दिया.
डॉ लोहिया तथा अन्य समाजवादी नेताओं और अभिवंचित समाज के बुध्दिजीवियों के द्वारा यह आवाजें उठती रहीं कि देश की अधिसंख्य पिछडी ज़ाति को देश की सत्ता और प्रशासन में भागीदारी मिले. 1977 में संयुक्त मोर्चे की सरकार बनी और विवशता की स्थिति में मंडल पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन हुआ. वह रिर्पोट भी इन्दिरा गांधी की कांग्रेसी सरकार ने फिर बहुजनों के हित की उपेक्षा कर उसे शीतगृह में डाल दिया. पुन: 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने संशोधित रूप में इसे लागू करने का जोखिम उठाया. इस प्रकार सामान्य सरकारी सेवाओं में पिछडाें के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ.
पर न्यायपालिका अछूता रह गया. न्यायपालिका के कनीय पदों पर सीमित रूप से आरक्षण की नीति लागू की गयी. उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालय और सीधी भर्ती की प्रक्रिया अब भी जारी है. नतीजतन देश के करीब 90 प्रतिशत पदों पर सवर्ण जातिया/ काबिज हैं. विडम्बना यह है कि अनेक उच्च न्यायालयों में एक भी न्यायाधीश अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक समुदाय तथा पिछडे वर्ग के नहीं है. इसका दुष्परिणाम चिन्ता का विषयहै. न्यायपालिका में कार्यरत वकीलों का एकाधिकार भी टूट नहीं रहा है.
वे न्यायालयों में अघोषित कारणों से वर्चस्वी बने हुए हैं. सीधी बहाली में आये न्यायाधीशों की जातीय और योग्यता के विश्लेषण करने से चौंकाने वाले परिणाम आते हैं. अभिवंचित वर्ग के प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण उन्हें वकालत और न्याय में दुष्परिणाम देखने को मिलते हैं. प्रखर से प्रखर अभिवंचित वर्ग के अधिवक्ता उपेक्षित और अनदेखे रह जाते हैं. अम्बेडकर मिशन पत्रिका के हवाले यह स्थिति उल्लेखनीय है कि देश भर में अभी 21 उच्च न्यायालय है और जिनमें न्यायधीशों के 647 पद स्वीकृत हैं जिसमें अभी कुल 503 न्यायाधीश कार्यरत हैं. वैध 144 पद रिक्त पडे हैं. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों, पिछडा वर्ग और महिलाओं के लिए आरक्षण नहीं है. उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय में 5 प्रतिशत ही न्यायाधीश अभिवंचित समुदाय के हैं. इस प्रकार 95 प्रतिशत इन पदों से वंचित है.
उच्च न्यायालय पटना की स्थिति भी चौंकाने वाली है. पटना में न्यायाधीशों के 33 पद हैं जिसमें 7 पद रिक्त है और और 26 न्यायधीश कार्यरत हैं. ये 7 रिक्त पद वकील कोटे से न्यायाधीश की नियुक्ति का है.
उपर्युक्त स्थिति इस बात के सूचक हैं कि न्यायपालिका में अभिवंचित वर्ग की भागीदारी नगण्य है. यह स्थिति चिन्तनीय है.ऐसी स्थिति में भारत की संसद में जिनमें अभिवंचितों के प्रतिनिधियों की संख्या अधिसंख्य है, की आंख खुलनी चाहिए और इस बात की जोरदार आवाज उठनी चाहिए कि समाज के उपेक्षित समुदाय को न्यायपालिका की नियुक्तियों में समानता और न्याय मिले. भारतीय न्यायिक सेवा प्रारम्भ हो, एक वर्ग विशेष का एकाधिकार समाप्त हो, अभिवंचितों के प्रति न्याय देने के लिए आरक्षण लागू हो. सामान्य सरकारी सेवाओं की तरह पाए गए गुण-दोष के आधार पर न्यायाधीशों को भी उत्त्तरदायी बनाया जाये. तब कहीं न्यायपलिका में भारत के गणतंत्र होने का औचित्य दीख पडेग़ा.

1 comment:

BrijmohanShrivastava said...

अब केवल एक ही तो जगह बची है जहाँ योग्यता के आधार पर चयन होता है अधिकतम योग्य और सीनियर एडवोकेट को न्यायाधीश बनाया जाता है /जहाँ सम्बिधान में ऐसे संशोधन होते हों की =हमारे द्वारा किए गए संशोधन को न्यायालय में चुनोती नहीं दी जा सकती = यदि वकील विद्वान् है सीनियर है सम्बिधान का विशेषज्ञ है तो फिर वे न्यायाधीश बन ही जाते है इस में वर्ग कहाँ से आगया