06 April 2008

अब न होंगे लहूलुहान कबूतर, लिखना

- शांति यादव

गोला औ बारूद हमारी संसद में

रूत बदली क्या खूब, हमारी संसद में.


'भूख' 'विकास' के मुद्दे ठंढे बस्ते में

'कफन' और 'ताबूत' हमारी संसद में.


लू के नए थपेडे लेकर आई है

घोटालों की धूप हमारी संसद में.


किसने लूटा देश ये सारा जग जाने

मिलते नहीं सबूत हमारी संसद में.


बीन लिये सारे गुल मा/ के दामन से

बैठे चुने 'सपूत' हमारी संसद में.


दाग भरे दामन भी पाक नजर आए/

वैसी मिले 'भभूत' हमारी संसद में.


हमें रसीले आमों की है आस, मगर

झडबेरी, शहतूत हमारी संसद में.


रात लिखकर न भूल जाना तू, सहर लिखना.

लिखने वाले तू जरा रुक के, मुकद्दर लिखना.


बाज ही बाज बनाने का तुझे शौक सही

अब न होंगे लहू-लुहान कबूतर, लिखना.


जो भी मज्लूम हैं मुद्दत से इस जमाने में

उनके हिस्से, सियासत का बस हुनर लिखना


अबके बंदूक के होठों पे गोलियों की जगह

प्यार के छंद औ गज़ल की बहर लिखना.


हैं बहुत दूसरों के ख्वाब चुराने वाले

उनको न नींद मयस्सर हो रात भर लिखना.


हरिजन को हरिजन की गाली, तुम भी देखो

कक्षा में उसपर भी ताली, तुम भी देखो.


दलित राम को चाय पिला फिर पांडे जी ने

कोने में ही रखी प्याली, तुम भी देखो.


साहब की कुर्सी पर बैठा देख उन्हें

दफ्तर में चल रही जुगाली, तुम भी देखो.


संविधान में कुछ हर्फों को खुदवाकर

कैसे चुप बैठा है माली, तुम भी देखो.


कैसे दम्मे की मरीज सी हांफ रही

'पचपन' की बूढी आजादी, तुम भी देखो.


नेताओं की देह से कैसे खिसक रही

होकर पानी-पानी 'खादी', तुम भी देखो.

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