05 April 2008

पवित्र साहित्य का सच

डा. रामचंद्र प्रसाद यादव

जिस प्रकार स्मृतिकारों, संहिता-स्रष्टाओं ने भारतीय समाज को श्रेनियों में बांटकर चार प्रकार के मानुस का निर्माण किया, उसी प्रकार साहित्य के इतिहासकारों, समालोचकों ने साहित्य को श्रेणियों में बांटकर पवित्र साहित्य का निर्माण किया. इतना ही नहीं सभ्यता के आदिकाल में रचनाकारों ने इन साहित्यिक कृतियों द्वारा भारतीय जन-जीवन पर ऐसे करतब दिखाने शुरू किये कि संस्कृत के प्रसिध्द विद्वान मैक्समूलर तक को अचंभित होना पडा. यह आकस्मिक नहीं है और न अकारण है कि प्रत्येक भारतीय के दिल में इस पवित्र साहित्यिक रचनाओं के प्रति गहरी श्रध्दा है. सभ्यता के शुरूआती दौड में ही इन रचनाओं का इतना पांडित्यपूर्ण हो जाना मामूली गौरव की बात नहीं है.धार्मिक साहित्य की श्रेणी में इन पवित्र रचनाओं को मान्यता मिली है. फलस्वरूप आज रामायण, महाभारत, गीता, कुरान और

बाईबिल ने भारतीय जन-मानस को इस तरह प्रभावित किया कि उन्हें भुला पाना असंभव है. इसकी गुणवत्ता को लेकर 20 वीं सदी के प्रख्यात दार्शनक ओशो रजनीश तक को स्वीकारना पडा कि अगर हम इन रचनाओं को भुला दें, तो यूरोपियन, इस्लामिक एवं भारतीय साहित्य में बचेगाक्या?

इस आलेख के माध्यम से इन धर्म ग्रन्थों की साहित्यिक श्रेष्ठता का प्रश्न खडा करना मेरा उद्देश्य नहीं है. बल्कि हटकर यह देखने का प्रयास है कि वर्तमान समय में ये कृतियां मानव समाज की प्रगति और उसको समाज की मुख्यधारा में लाने में कितना सहायक है और अगर ऐसा कर पाने में ये रचनाएं असरदार और सार्थक भूमिका निभान में असमर्थ है, तो इन्हें बेवजह सर पर ढाेते रहने का क्या औचित्य हो सकता है?

युग-युग से साहित्य की परिभाषा करने वालों ने इसे सत्य कहा. इसे शिव या मंगल करने की क्षमता से भरपूर माना गया.साथ हीं सुन्दर भी माना गया. अब हमें देखना है कि उक्त परिभाषा की परिधि में ये धर्म-ग्रन्थ कहां तक आते हैं. अगर हम अति-पवित्र ग्रन्थ रामायण को हीं लें, तो इसकी पूर्व में स्थापित श्रेष्ठता के अलावे इसमें व्यक्त तथ्य मुझे विस्मित करते हैं. एक तरफ तो हम पाते हैं कि राम कथा अन्याय के विरूध्द न्याय की विजय का सार्थक एवं सक्षम प्रतीक है.दूसरी ओर यह भी भुला पाना मुश्किल है कि समाज में सबसे निम्नतल पर शूद्र और नारी है और ये समाज में दंडित होकर जीने को अभिशप्त है. आज केपरिप्रेक्ष्य में शूद्र और नारी को सामाजिक न्याय के अधीन समान स्तर पर लाने का सरकारी रंगमंचीय अभिनय चल रहा है. लेकिन सच तो यह है कि आज भी भारतीय समाज इस विषयुक्त जुमले से पूरी तरह निजात नहीं पा सका है. उल्टे रामायण की पंक्तियों को आज भी समाज के सुविधा भोगी वर्ग आदर्श वाक्य ही समझते हैं और इसे मनुवादी आदेश समझकर शोषित पीडित जनसमुदाय पर कहर बरपा रहे हैं. महाभारत बेशक रामायण से कहीं अधिक ही जीवन के करीब और कृष्ण के चरित्र के माध्यम से अपने अधिकार के लिए संघर्ष की वकालत करता है. लेकिन गुण और कर्म के आधार पर वर्गीकृत महाभारत का समाज इस बात की इजाजत नहीं देता कि सूतपुत्र कर्ण राजा बनने का अधिकारी हो सकता है. द्रोणाचार्य जैसे अधम गुरू के निर्णय ही स्वागत योग्य हैं. एकलव्य जैसे प्रतिभाशाली चरित्र का शौर्यबल ब्रह्मा के मुख से जन्मे द्विजों द्वारा दफन कर दिया जाता है. आर्य और अनार्य का बनावटी संघर्ष दिखाकर समूचे भारत को युध्द की आग में इस कदर झोंक दिया गया कि आज भ ी हम सामाजिक समरसता के सिध्दान्त को जीवन में नहीं उतार पाते हैं. इस तरह यह महान ग्रंथ भी आपससद्भावना के बदलेर् ईष्या, द्वेष का स्मृति ग्रन्थ बनकर रह गया. जो साहित्य सामाजिक कल्याण, समानता और सौहार्द का अलख न जगा पावे, उसमें पवित्रता किस बात की. समाज के कुछ वर्गों द्वारा मनुस्मृति को रामायण और महाभारत से अधिक महत्वपूर्ण और पवित्र ग्रन्थ माना गया है. मनु की विद्वता को लेकर कोई मतभेद नहीं हो सकता . लेकिन इस श्रेष्ठ साहित्य को लेकर संकट वहां उठता है, जब यह बात आज के वैज्ञानिक समाज को गले के नीचे नहीं उतरती कि समाज में सबको सम्मानित जीवन जीने का अधिकार नहीं. ज्ञान और स्मृति से वंचित जमात मनु के इस आदेश का कोई संगठित प्रतिरोध तो नहीं कर सका, लेकिन आज उस आदेश का खुला विरोध व्यक्गित और समाज के स्तर पर जमकर हो रहा है. समाज को बांटने वाला यह ग्रन्थ भी अगर पवित्रता की श्रेणी में आता है, तो लगता है कि आज का भारतीय समाज हजारों वर्ष पुराने निकृष्ट विचारों के शिकंजे से मुक्त नहीं हुआ है. ऐसे ग्रन्थों से समाज का समुचित विकास तो नहीं हाे सका, बल्कि भयंकर विध्वंस के संकेत जरूर सामने है.

माना जा रहा है कि भारत विविध संस्कृतियों का देश है और यहां हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी आपस में मिलकर रहते हैं. श्रेष्ठ साहित्य मनुष्य के सामाजिक संबंधों में कडवाहट की अनुशंसा नहीं करता है. श्रेष्ठ साहित्यकार अपनी रचना के माध्यम से मनुष्य-जीवन और उसके समाज की आलोचना इसलिए करता है जिससे वह अपने जीवन-मूल्यों को समझे और रचनाकार की जीवन-दृष्टि उसके आदर्श के रूप में उसे उस संसार की और अग्रसर करावें जहां आपसी प्रेम और श्रध्दा हो. कुरान एक धर्मग्रन्थ के रूप में हमें ईमानदारी, त्याग और मिलकर रहने का संदेश देता है. लेकिन अपना विचार अगर यह जबरन लोगों पर थोपता हो तो यह ग्रन्थ सबका गुरू ग्रन्थ नहीं बन सकता. कुरान के अध्येता यह प्रमाणित कर चुके हैं कि मुहम्मद साहब शिक्षित नहीं थे और खुदा के बन्दे /प्रतिनिधि थे और खुदा ने उनके मुख से कुरान की रचना करवायी. अगर यह खुदा की कृति है तो उसमें सबके लिए मंगल की भावना होनी चाहिये.

ईश्वर तो सबके लिये है. मानव कल्याण ही उसका उद्देश्य है. तो फिर कुरान पढ-पढक़र वैसे लोगों को काफिर बताकर क्यों हत्या की जाती है, जो जबरन इसके शरीयत को मानने को तैयार नहीं. कुरान की पवित्रता पर यहीं प्रश्न चिन्ह खडा होता है. विभिन्न धर्मों के बीच एकता को जो धर्म-ग्रन्थ मजबूत करे, वही पवित्र कहा जाना चाहिये. अत: कुरान सरीखे पवित्र साहित्य का भी आज के संदर्भ में मूल्यांकन अनिवार्य है.

बाईबिल को संसार के श्रेष्ठतम पवित्र ग्रन्थों में एक समझा जा रहा है. प्रभु इशु मशीह के जीवन-संघर्ष का ग्रन्थ अनुपम कृति है. समाज कल्याण की भावना से उत्प्रेरित ईसा ने जीवन के अंतिम क्षण में भी प्रेम और बलिदान को अपने जीवन को ध्येय बनाया. अपने हत्यारों के लिये भी उन्होंने ईश्वर से क्षमा मांगी और कहा- ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं. लेकिन आज के इस वैज्ञानिक युग में इस धर्म ग्रन्थ में वर्णित आदेश एशिया और यूरोपियन समाज को जोड पाने मेंकहां तक सफल है, विमर्श का मामला बनता है. जीसस के शिष्य सत्ता के शीर्ष शिखर पर जाकर इस तथ्य को भूल जाते हैं कि उनमें जीसस द्वारा निदेशित कितने गुण बच गये हैं. व्यक्ति को कौन पूछे देश के देश इनके बमों से ध्वस्त हो रहे हैं. बाईबिल की दुहाई दे-देकर वे संसार को समूल नष्ट कर रहे हैं. इतने शक्तिशाली होते हुए भी अहंकार के आगोश में वे समझ नहीं पा रहे हैं कि वे क्या कर रहे हैं. उस पर भी वे चाहते हैं कि उनके कुकृत्यों के लिए कोई जीसस अवतरित होकर ईश्वर से क्षमा मांगे. भक्ति और श्रध्दा से ही परमात्मा के दर्शन होते हैं. लेकिन अंधभक्ति से न तो ईश्वर मिलते, नहीं आत्म-ज्ञान की संभावना है. जिस प्रकार अंध राष्ट्रवाद और तथाकथित हिन्दुत्व और स्वदेशीकरण के लुभावने मुहावरे न भारत की राष्ट्रीयता की, न हिन्दुत्व की और न स्वदेशी की रक्षा कर पाने में सक्षम है ठीक उसी प्रकार न तो रामायण न तो महाभारत , न तो मनुस्मृति या फिर न तो कुरान या न बाईबिल भारत सहित संसार की मनुष्यता की रक्षा कर पाने में सक्षम है. अन्य साहित्यिक मानदंडों के कारण ये अति श्रेष्ठ साहित्य अवश्य हो सकते हैं. लेकिन आज का नया मनुष्य इन ग्रन्थों की पवित्रता को स्वीकार करने के पूर्व इनकी पवित्रता के सच की चीर-फाड एक कुशल शल्य चिकित्सक की भांति अवश्य करना चाहेगा.

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