02 April 2008

आरक्षण का अपहरण-अभ्यास


श्यामल किशोर यादव

संविधान निर्माताओं ने आधुनिक भारत के निर्माण के लिए सामाजिक न्याय की संकल्पना की और तब आरक्षण का मन्तव्य एवं मकसद उनके लिए सामाजिक न्याय था. सामजिक न्याय का लाभार्थी वर्ग उन लोगों ने सामाजिक एंव शैक्षिक रूप से पिछडे वर्ग के लोगों को माना. कालान्तर में इसकी पहचान के लिए मंडल आयोग ने मापदण्ड तैयार किया और मापदण्ड के आधार पर भारत भर में 3743 जातियों को अन्य पिछडा वर्ग के रूप में चिन्हित कर ऐसे वर्ग समूह को सरकारी नौकरियों एवं सरकारी उपक्रमों में मात्र 27 प्रतिशत आरक्षण के अलावे अन्य रियायतों की अनुशंसा की जिसे आंशिक रूप से वीपी सिंह सरकार ने घोषणा कर लागू किया. हजारों साल से आरक्षण का लाभ भोग रहे भारतीय वर्ण व्यवस्था के
कर्णधारों ने सरकार के उक्त आचरण एवं आदेश को मेरिट व एक्सेलेंसी पर आघात बताया. परिणाम यह हुआ कि धर्मनिरपेक्ष भारत में जाति सापेक्ष नग्न प्रदर्शन किया जाने लगा. भाजपा समर्थित सरकार टूटी. मण्डल के खिलाफ कमण्डल वालों ने सोमनाथ से रथ यात्रा प्रारम्भ की और जिस अश्वमेध यज्ञ में उनकी पराजय बिहार के समस्तीपुर में हुई. केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी और पीवी नरसिंह राव की सरकार ने सामाजिक न्याय के दायरे में 10 प्रतिशत आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था लागू करने के लिए भिन्न सरकारी संशोधन का प्रस्ताव माननीय उच्चतम न्यायालय के समक्ष पेश किया. जिस कारण सिंह सरकार अल्पमत में आई उसका पुख्ता इंतजाम कांग्रेसी सरकार ने कर बाह्मणवादी सामाजिक वर्चस्व को कायम बनाए रखने का असफल प्रयत्न किया. शीर्ष पर स्थित आरोही क्रम के जाति समूह को शकुन लगा. पर भाग्यवादियों के भाग्य में ग्रहण लग चुका था- माननीय उच्चतम न्यायलय के 16 नवम्बर 1992 के फैसले ने सिंह सरकार के 13 अगस्त 1990 के निर्णय को वैध ठहराते हुए एंव नरसिंहा राव के दिनांक 25 सितम्बर 1991 के आर्थिक आधार पर दिए गए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था संबंधी संशोधित प्रस्ताव को पूर्णत: अवैध घोषित कर दिया. संविधान की उपयुक्त व्याख्या हुई और सामाजिक न्याय का अपहरण नहीं हो पाया. लेकिन सामाजिक और शैक्षिक पिछडे वर्ग समूह को आरक्षण का लाभ मिलने के लिए माननीय उच्चतम न्यायालय ने पिछडाें में अगडे क़ी पहचान अर्थात पिछडाें में मलाईदार परत वाले लोगों को चिन्हित कर आरक्षण के लाभ से अलग रहने का निर्देश दिया.
21 वीं सदी के प्रथम दशक का तीसरा वर्ष. सरकारी नौकरियां तो सिकुडती गई ताकि पिछडे वर्गों को विशेष अवसर के सिध्दान्त पर अधिकाधिक फायदे से रोका जाये. ईजाद यह किया जा रहा है कि पिछडे वर्ग की जगह अगडे में आर्थिक रूप से पिछडे वर्ग को विशेष अवसर का लाभ कैसे दिलाया जाए. आरक्षण राजनीति के इस खेल की शुरूआत राजस्थान के पिछडे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने गरीब सवर्णों को 14 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला करके की और उन्होंने इसे लागू करने के लिए केन्द्र से अनुमति भी मांगी है. देखा-देखी महाराष्ट्र में छगन भुजबल ने ऐसी ही पहल की है. मध्य प्रदेश सरकार ने अन्य पिछडे वर्गों के लिए 14 प्रतिशत से 27 प्रतिशत के आरक्षण बढाने की अधिसूचना जारी कर उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित अधिकतम सीमा से पार जाने की राजनीतिक कलाबाजी का प्रदर्शन कर आरक्षण का प्रतिशत 63 फीसदी करने का शौर्य दिखाया. और तो और अब राबडी सरकार भी यही चाहती है. इन तमाम कलाबाजियों का एक ही सबव है - विधान सभाओं एवं लोक सभा के आगामी चुनाव में आर्थिक रूप से पिछडाें का वोट बटोरना. भला केन्द्र सरकार आरक्षण राजनीति के इस खेल में पीछे कैसे रहती. स्वयंसेवक प्रधानमंत्री ने तो विगत 26 मई 2003 को भाजपा के राष्ट्रीय पदाधिकारियों की जयपुर की बैठक 24 मई में पारित प्रस्ताव के आलोक में देश भर के गरीब सवर्णों को 14 प्रतिशत आरक्षण देने की मांग हेतु एक राष्ट्रीय आयोग बनाने हेतु अपनी सहमति जताते हुए कैबिनेट में निर्णय लेने का आश्वासन दिया. और फिर 11 अगस्त को कैबिनेट की बैठक में इसकी रूपरेखा तैयार करने के लिए कैबिनेट स्तरीय उपसमिति के गठन की मंजूरी भी दे दी है.
प्रश्न उठता है कि केन्द्र सरकार का यह प्रयास क्या आरक्षण अपहरण का तो अभ्यास नहीं? संविधान में सन्निहित प्रावधानों के अन्तर्गत सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछडाें के लिए वीपी सिंह सरकार के फैसले कभी इस पार्टी के लिए नागवार गुजरी तो फिर आर्थिक आधार पर पिछडाें की पहचान कर आरक्षण देने की बात जिसे माननीय उच्चतम न्यायालय ने 1992 में ही खारिज कर अवैध घोषित कर दिया, के लिए यह हाय तौबा क्यों ?
संविधान निर्माताओं ने सिर्फ सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछडे लोगों के लिए लोक नियोजन में आनुपातिक विषमता को दूर करने के लिए विशेष अवसर के सिध्दान्त के आधार पर नये हिन्दुस्तान के निर्माण की योजना बनाई थी.नियोजन के क्षेत्र में पहले से ही सवर्णों का अनुपात ज्यादा है तो फिर क्यों असमानों को समान मानकर असमानता की खाई को पाटने के बजाय इसे शाश्वत करने का प्रयास किया जा रहा है? दूसरे, माननीय उच्चतम न्यायालय ने जब आर्थिक आधार पर आरक्षण को अवैध और असंवैधानिक घोषित किया है तो फिर केन्द्र सरकार क्यों कोर्ट के अवमानना के दायरे में आना चाहती है; संविधान सम्मत प्र्रावधानों से भिन्न अगडे में पिछडे क़ी खोज के क्या मायने हैं? भाजपा सरकार राष्ट्रीय स्वास्थ्य के लिए दिनाेंदिन हानिकारक होती जा रही है. 16 नवम्बर 1992 के कोर्ट के निर्णय को मानना केन्द्र का राजधर्म है. अन्यथा इसे आरक्षण अपहरण का अभ्यास मात्र ही माना जायगा. सामाजिक न्याय गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम नहीं है - हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए. ऐसा कोई भी सरकारी प्रयास सामाजिक न्याय के धरातल को कमजोर ही करेगा.
'मंडल विचार' का आगाज हो रहा है. मंडल के अनेकार्र्थ हैं. लेकिन व्यापकता में मंडल शोषणकारी मनुवादी व्यवस्था के बरक्स आज 'सामाजिक न्याय' का पर्याय हो गया है. इसलिए मंडल का विचार सामाजिक न्याय के रास्ते सामाजिक समरसता का विचार है.यह उस मौन क्रांति को सलाम व स्वीकृति है जिस दिशा में एक बडी छलांग वीपी सिंह सरकार ने लगभग डेढ दशक पूर्व लगायी थी.राष्ट्रीय एकता के निमित्त कर्तव्य के अनुपालन एवं सामाजिक न्याय सिध्दान्त के प्रवर्तन हेतु जन-जागृति पैदा करना 'मंडल विचार' पत्रिका की नीति होगी.प्रवेशांक को आपके हाथों सौंपते कदाचित् 'स्वान्त: सुखाय' की अनुभूति हो रही है. आपका नीर-क्षीर-विवेक सर आंखों पर!

(मंडल विचार के प्रथम अंक का संपादकीय)

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