21 April 2008

बिहार बनाम बिहारी अस्मिता

शिवनंदन राम


बिहार एक समस्या मूलक प्रांत है. यहां पर चौवालिस प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करती है, जबकि देश का औसत प्रतिशत सिर्फ बाईस है. साक्षरता के मामले में भी यह देश के सर्वाधिक पिछडे हुए राज्यों में एक है. सन् 2001 की जनगणना के अनुसार यहां पर साक्षरता का दर 4757 प्रतिशत है जबकि देश की कुल साक्षरता दर 6538 प्रतिशत है. राज्य की 90 प्रतिशत जनता कृषि अथवा कृषि जनित छोटे-छोटे उद्योगों पर आश्रित है. राज्य के बॅटवारे के बाद यहां के 70 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधन झारखंड को चले गये, बिहार के जिम्मे सिर्फ 30 प्रतिशत ही रहे, जबकि आबादी के मामले में इसके ठीक विपरीत हुआ यानी 70 प्रतिशत बिहार को एवं मात्र 30 प्रतिशत झारखंड को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राज्य की दशा एवं दिशा सुधारने हेतु अनेक प्रयत्न हुए, परन्तु परिणाम वही ढाक के तीन पात.

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति जनजाति आयोग का कहना है कि बिहार दिनानुदिन गरीब होता जा रहा है. चालू दशक में आम आदमी की आमदनी में कमी आयी है. गरीबों को संख्या में

ईजाफा हुआ है. 1975 में इनकी संख्या तीन करोड तैंतीस लाख थी, जो अब बढक़र चार करोड तिरेपन लाख हो गयी है. भूमि सुधार आंदोलन के चलते वहां पर गरीबों की संख्या में स्पष्टतः कमी आयी है. परन्तु बिहार में जीविका का मुख्य स्रोत होते हुए भी भूमि सुधार को आन्दोलन का रूप कभी नहीं दिया गया.

भूमि सुधार आंदोलन की विफलता बिहार में उग्रवाद आंदोलन के पनपने का मुख्य कारण रहा है. नीचे तबके के लोगों में घोर निराशा एवं आक्रोश है. अपनी गलत सोच के कारण वे उग्रवाद का सहारा ले रहा है. प्रजातांत्रिक पध्दति से उनका विश्वास उठ गया है. बैलेट की जगह बुलेट में उनकी आस्था है. मध्य बिहार उग्रवाद से पूरी तरह प्रभावित है. इसकी वजह से हजारों हिंसा की भेंट चढ चुके हैं. इनके मुकाबले के लिए जमीन्दारों ने भी रणवीर सेना नामक संगठन खडे क़र लिये हैं. आये दिन इन दो परस्पर विरोधी संगठनों में संघर्ष जारी है और जारी है निर्दोष लोगों का कत्लेआम.

विधि-व्यवस्था के अभाव में विकास कार्य अवरूध्द है. यहां से प्रतिभाओं के साथ व्यवसायियों का भी पलायन हो रहा है. अब तक बहुत सारे व्यवसायी बिहार छोडक़र जा चुके हैं. सर्वत्र अंसतोष एवं भय परिख्यात है. गरीबपरेशान हैं अपनी गरीबी से.अमीर परेशान है अपनी सम्पत्ति बचाने में.

परन्तु यहां एक विचारणीय प्रश्न उठता है कि क्या सिर्फ बिहार ही इन त्रासदियों को झेलने के लिए अभिशप्त है या बिहार के बाहर के राज्यों में भी इस तरह का परिदृश्य है. क्या वहां भी हिंसक गतिविधियां होती हैं. उत्तर स्पष्टत: स्वीकारात्मक होगा.उग्रवादी गतिविधियों में पूर्वोत्तर राज्यों, आन्ध्र प्रदेश अथवा जम्मू-कश्मीर में जितने लोग मौत के घाट उतार जा चुके है, उनकी तुलना में बिहार की स्थिति काफी अच्छी है. विकास संबंधी अन्य भौतिक उपलब्धियों की बात करे तो निकटवर्ती राज्यों यूपी, उडीसा, बंगाल, असम अथवा पूर्वोत्तर राज्यों की तुलना में हमारी उपलब्धियां कम नहीं है.अन्न के मामले में बिहार आत्म निर्भर हो चुका है.शांति और व्यवस्था अब काबू में है.बडे बडे बाहुबली जेल की सलाखों के पीछे लाये जा चुके हैं. जो बाहर हैं उनका मनोबल टूटा है. पंचायती राज के गठन के बाद से ग्रामीण परिदृश्य में स्पष्ट बदलाव दृष्टिगोचर हो रहा है. प्रशासन में आम आदमी की सहभागिता बढी है. भूमि सुधार कार्यक्रम को जोर-शोर से लागू करने की तैयारियां चल रही है.

प्रतिभा, राजनीति और धर्म में तो बिहार का लोहा सारी दुनिया मानती है. बिहार के छात्रअपनी प्रतिभा के चलते सभी दुनिया में बिहार का नाम रौशन कर रहे हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय हो या जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय या फिर अमेरिका का नासा या सिलिकन वैली ही क्यों न हो, सर्वत्र छाये हुए हैं, सत्ता और अर्थ पर उनकी पकड क़ाफी मजबूत है.

बिहार का अतीत अत्यंत ही गौरवपूर्ण एवं वैभवशाली रहा है. तीर्थकर महावीर एवं भगवान बुध्द इसी माटी की देन हैं, जिन्होंने शांति और अहिंसा का संदेश सारी दुनिया को दिया. अशोक, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य आदि चक्रवर्ती सम्राट यहीं पैदा हुए थे.


परन्तु प्रश्न यहां यह उठता है कि इतने वैभवशाली अतीत और प्रगतिशील वर्तमान के होते हमने अपनी ऐसी हालत क्यों बना रखी है. हम अपनी हालत पर सदैव रोते क्यों रहते हैं.हमें अपनी बिहारी अस्मिता को छिपाकार जीने में क्यों आनन्द की अनुभूति होती है. अपने बिहारीपन पर हमें गौरव का एहसास क्यों नहीं होता. हमें शर्म का बोध क्यों होता है. एक बंगाली, मद्रासी अथवा मराठी को अपने को बंगाली, मद्रासी अथवा मराठी कहने में स्वाभिमान एवं आत्म गौरव का बोध होता है. बल्कि सच माने तो वह बंगाली, मद्रासी अथवा मराठी पहले हैं, बाद में भारतवासी. वास्तविकता तो यह है जो अपने सूबे को प्यार न कर सका वह देश का सपूत कैसे हो सकता है? क्या इन पंक्तियों का मनन हमने ठीक से किया ेहै-

अंय निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्

उदार चरितानान्तु बसुधैव् कुटुम्बकम्.

जी नहीं. कवीन्द्र रविन्द्रनाथ टैगोर देश ही नहीं दुनिया के गिने-चुने विद्वानों में से एक थे. उन्होंने अपने सूबे बंगाल को आमार सोनार बंगलादेश कहा था. बंगाल के बाहर के लोग जो हिंदी भाषी हैं, उन्हें हिन्दोस्तानी कहकर संबोधित किया था. क्या यह उनकी संकीर्ण मनोवृति का परिचायक है, जी नहीं. जिसने खुद को प्यार करना सीख लिया, वही खुदा का सच्चा बंदा है. चाहे जहां कहीं भी हो, जिस दिन एक एक बिहारी अपने को बिहारी कहने में गौरव महसूस करेगा उस दिन बिहारी अस्मिता की अद्भुत पहचान बनेगी. बिहारियों का अपना एक संगठन होगा. इनकी एक अलग जमात होगी. आज जो लोग बिहारियों को नफरत की नजर से देखते हैं उल्फत की नजर से देखने को मजबूर होंगे.सच मानो अगर इनका अपना मजबूत संगठन हो गया तो दिल्ली प्रदेश की सरकार इनकी अपनी होगी.दिल्ली में बिहारियाें की संख्या चालीस लाख के आस-पास है.परन्तु वे असंगठित हैं. अस्तु अस्मिता की भावना जगानी होगी.मंदिर में दीप जलाने के पहले घर को रौशन करना होगा. तभी कायम हो सकेगी बिहारी अस्मिता और बुलंद हो सकेगी हमारी आवाज.

14 April 2008

जाति-व्यवस्था अमेरिकी नस्लभेद से खतरनाक - क्रिस्टीना वोरोस

एओएल की यह खबर गौर करने लायक है - " भारत में जाति व्यवस्था पर फिल्म बनाने आई एक अमेरिकी वृत्तचित्र निर्माता का कहना है कि भारतीय समाज में जाति व्यवस्था की पैठ बिलकुल जड़ों तक है लेकिन कोई इस पर बात नहीं करना चाहता। सभी लोग किसी न किसी रूप में इस पर यकीन भी करते हैं।

न्यूयार्क की वृत्तचित्र निर्माता और चलचित्रकार क्रिस्टीना वोरोस कहती हैं, "मुझे इसका एहसास यात्रा की शुरुआत में ही हो गया। जब मैं इसके बारे में तथ्य जुटा रही थी तब मुझे लगा कि यह अमेरिका के नस्लभेद से भी ज्यादा खतरनाक है। यहां यह समाज के एकदम निचले सिरे पर मौजूद है और सभी इसे मानते हैं लेकिन कोई इस पर बात नहीं करना चाहता।"

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सामाजिक समरसता के सपने का सच

- दयानन्द

संसार के प्रत्येक भाग में समाज को व्यवस्थित करने एवं मानव जीवन को गरिमामय बनाने के लिए एक विचारधारा की आवश्यकता होती है. आदिकाल में संबधित विचारधारा को दर्शन का नाम दिया गया और उसमें प्रगति एवं शांति के लिए मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे नियम कानून कायदे निरूपित कर दिये गये जिसे हम धर्मशास्त्र के नाम से जानते हैं. दर्शन का निर्माण काल परिस्थिति आदि के आधार पर होता है. समय के अनुसार समाज, शासन एवं धर्म में परिवर्तन होता रहता है.ग्रामीण लोकोक्ति है कि रमता जोगी बहता पानी. लेकिन दु:ख की बात है कि लोकतंत्र में दर्शन के प्राचीन स्वरूप को बदलने का प्रयास आवाम के द्वारा नहीं किया गया क्योंकि दर्शन हमारे सामाजिक जीवन को आचार, विचार, संस्कार एवं त्योहार के रूप में जाकर देखता है.परिणामस्वरूप हम रूढिवादी, परम्परावादी, अन्धविश्वासी बन गये हैं जिसके चलते हमारे जीवन में समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व का अभाव हो गया है. दुनिया का कोई दर्शन बिना राज्य सत्ता का सहारा लिए विस्तृत क्षेत्रों में फैल नहीं सका. इसलिए भारत जैसे देश में यह काम लोकतांत्रिक व्यवस्था के माध्यम से किया जा सकता है. लेकिन दु:ख की बात है कि आज के राजनेता दर्शन को राजनीति शास्त्र का विषय वस्तु मानने से इन्कार करते हैं जो एक भयंकर भूल है. महात्मा गांधी, विश्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर, अम्बेडकर, लोहिया धार्मिक दर्शन को राजनीति का अभिन्न अंग मानते थे. गांधी जी के शब्दों में, 'मैं उस समय तक धार्मिक जीवन व्यतीत नहीं कर सकता था जबतक कि मैं स्वयं को संपूर्ण मानवता के साथ एकीकृत न कर लेता और यह काम मैं उस समय तक नहीं कर सकता था जब तक कि राजनीति में भाग नहीं लेता.' समाज में सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए संपूर्ण बदलाव की अनिवार्यता है. संपूर्ण बदलाव के लिए सांस्कृतिक क्रांति आवश्यक है. सन् 1930 में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने देश वासियों सेकहा था- 'हमारे देश को जीन जंजीराें में जकड रखा गया है. उनपर बार बार प्रहार करके हमें उन्हें तोडना होगा. प्रत्येक संघर्ष पीडा से भरपूर होता है किंतु गुलामी के बंधन से मुक्त होने का दूसरा उपाय नहीं है. सामाजिक समरसता कायम करने के लिए मानसिक परिवर्तन की जरूरत है. मानसिक परिवर्तन के लिए सांस्कृतिक परिवर्तन आवश्यक है. सांस्कृतिक परिवर्तन को समझने के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था ब्राह्मणवादी व्यवस्था की समाजशास्त्रीय एवं वैज्ञनिक व्याख्या जरूरी है. मनुष्य की उत्पत्ति के संबंध में वेद गीता, रामायण आदि में भिन्न-भिन्न बातें बतायी गयी है. वर्णाश्रम व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था न होकर सुविधा, अधिकार एवं विशेषाधिकार की व्यवस्था है. यह एक हीनता का दर्शन है. भारतीय समाज के साथ गहरी साजिश है क्योंकि वेद अध्ययन स्त्री, शूद्र एवं पतित ब्राह्मण के लिए मना है. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 1992 के मंडल आयोग संबंधी फैसले में टिप्पणी की थी कि इस देश में समूचे अर्थ तंत्र, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्ांस्कृति और उद्योग पर सिर्फ दस प्रतिशत लोग काबिज हैं. ब्राह्मणवादी व्यवस्था में हिन्दुस्तान के जाने माने राजनेता, साहित्यकार, विद्वान, लेखक अधिकारी को अपमानित किया गया है. जैसे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों द्वारा राष्ट्रनायक वीर शिवाजी का राज्याभिषेक से इन्कार देने पर उन्होंने बनारस से गंगाभट नाम ब्राह्मण से धनबल से राज्याभिषेक कराया परंतु तिलक पैर के अंगूठे से लगाया. 'रामचरित मानस' के रचयिता ब्राह्मण श्रेष्ठ तुलसीदास को अयोध्या में ब्राह्मणों द्वारा पत्थरों से मारे गये और उन्हें बाबरी मस्जिद में आश्रय लेना पडा था. तुलसीदास ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा था- 'मांगिक खाइबो मसीत में सोइबो.'
रवीन्द्रनाथ टैगोर को पीरल्ली जातीय होने के कारण जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश से रोक दिया गया था. मद्रास में त्रावणकोर में बेकोम स्थान पर मंदिर निर्माण के कारण आस-पास से अछूतों को गुजरने पर प्रतिबन्ध था. उस क्षेत्र में अगर कोई अछूत गलती से भी मंदिर की गलियों में आ जाता था तो ब्राह्मण उसकी हत्या कर देते थे. 9 मई 1925 को गांधी बाइकम गये और पेरियार को सलाह दी-' हमें ब्राह्मण से टकराव की स्थिति नहीं पैदा करनी चाहिए. मंदिर में अछूतों के प्रवेश के प्रश्नों पर जोड नहीं देना चाहिए यदिमंदिर के आस-पास की सडक़ों और गलियों में आने-जाने का अधिकार अछूतों को मिल जाता है तो हमें उस पर भी ही संतोष कर लेना चाहिए कि अछूतों को सडक़ पर चलने का अधिकार मिल गया. श्री राम कथा ज्ञान समिति भागलपुर द्वारा बूढा नाथ परिसर में आयोजित राम कथा के दौरान जगदगुरू शंकराचार्य ने कहा, 'शूद्रों के यह भोजन नहीं करना चाहिए. शूद्र होना जन्मना है जन्म से ही कोई शूद्र होता है और सवर्ण तमाम अभावों के बावजूद पुरोहित नरश्रेष्ठ है( दैनिक अखबार हिन्दुस्तान-पटना 25 अक्टूबर 2002). तारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद ने गठबंधन सरकार के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए कहा था कि क्षेत्रीय दलों को लोक सभा का चुनाव लडने की अनुमति नहीं देनी चाहिए( हिन्दुस्तान पटना 21 सितम्बर 1999). स्व रामचन्द्र अध्यक्ष राम मंदिर निर्माण न्यास समिति ने फैजाबाद के आयुक्त को शिलादान करने से इंकार कर दिया.
समतामूलक समाज व्यवस्था के लिए एवं समाजिक परिवर्तन हेतु व्यस्क मताधिकार एवं लोकतंत्र ही सबसे सबल उपाय है. व्यस्क मताधिकार से संपन्न बहुजन समाज जो वर्ण व्यवस्था की सतायी हुई्र है इस व्यवस्था को बदल सकता है.संविधान ने रास्ता बनाया है यदि पचासी प्रतिशत आबादी की ओर से संगठित राजनीतिक प्रयास होता तो काफी हद तक सफलता मिली होती. लेकिन यह काम नहीं हुआ.दलित अनेक घरों में बांट दिए गये. छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए वे उन्हीं लोगों से समझौता करते रहे जो उनकी दुर्दशा के लिए जिम्मेवार थे. दि्ज अद्विज के संघर्ष को शूद्र - दलित संघर्ष में बदलकर उन्होंने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ चल रहे संघर्ष को कमजोर कर दिया और द्विजों की शाश्वत सत्ता के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया. यदि शूद्र समाज राजनीतिक दल बनाकर एक सूत्र में बंध जाये तो सामाजिक समरसता को कायम करने में सहायता मिलेगी.सभी बंद ताले खुलते हैं. सामाजिक समरसता कायम करने हेतु लोकतंत्र एवं व्यस्क मताधिकार के शक्ति को पहचानना होगा क्योंकि स्वतंत्र भारत में जो कुछ सामाजिक समरसता की गति तेज हुई है वह लोकतंत्र की देन है.

11 April 2008

पड़ोस में पाठशाला-एक हसीन ख्वाब

पड़ोस में पाठशाला-एक हसीन ख्वाब

शिक्षा के क्षेत्र में नाम कर रही विभिन्न संस्थाओं के राष्ट्रीय गठबंधन नेशनल एलायंस फॉर फंडामेंटल राइट टु एजुकेशन (नैफरे) ने कुछ महीने पहले जोधपुर में एक परिप्रेक्ष्य पत्र प्रस्तुत किया था. यह पत्र बारीकी से यह पडताल करता है कि कैसे समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था और पडाेस में पाठशाला संकल्पना की धज्जियां उडायी गयी. परिप्रेक्ष्य पत्र का संपादित अंश यहां प्रस्तुत किया जा रहा है.

कोठारी आयोग (1964-66) पहला शिक्षा आयोग था, जिसने अपनी विस्तृत रिपोर्ट में सामाजिक बदलाव के लिए समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था (कॉमन स्कूलिंग सिस्टम या सीएसएस) की अवधारणा को पेश किया. उसके बाद से संसद एक बार नहीं, तीन बार (1968, 1986 और 1992) की शिक्षा नीतियों में) इसे लागू करने की प्रतिबध्दता व्यक्त कर चुका है. परंतु सरकार बार-बार अपने वायदों से पीछे हटती जा रही है, जबकि सामाजिक बदलाव के लिए सीएसएस एक महत्वपूर्ण औजार तो है ही, समय की जरूरत भी है.

ऐतिहासिक संदर्भ
शिक्षा राज्य के हाथ में ऐसा वैचारिक औजार है जिसे सामाजिक ढांचे की संरचना व स्वरूप में बदलाव लाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. हालांकि यह दोधारी तलवार की तरह है, जो सामाजिक बदलाव के निर्णायक समय पर इस हथियार को चला रहे स्वामी को भी काट सकती है. इतिहास गवाह है कि हर सत्ता ने चतुराई से इस हथियार का इस्तेमाल किया है. भारत में शिक्षा का राष्ट्रीय ढांचा औपनिवेशिक पूंजीवाद के दौर में ही खडा हो पाया. लेकिन 'रक्त से भारतीय, आत्मा से अंग्रेज' वाली मैकालेवादी अवधारणा पर विकसित की गई इस शिक्षा व्यवस्था ने ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम की देहरी पर औपनिवेशिक जादूगरों को मात देने का काम किया और औपनिवेशिक प्रभुओं के खिलाफ एक प्रभावशाली मध्यवर्ग और आजादी की लडाई के नेताओं को जन्म दिया. आजादी के बाद शुरूआती दशकों में शिक्षा के आधारभूत ढांचे का तेजी सेविस्तार हुआ. बहरहाल, शिक्षा की औपनिवेशिक व्यवस्था बरकरार रहने के कारण आत्मनिर्भर भारत के नेहरूवादी पुननिर्माण परियोजना में बाधाएं खडी हो रही थीं. इसका नतीजा यह हुआ कि 'सभी स्तरों पर और सभी रूपों में शिक्षा के विकास के लिए सिध्दांतों व नीतियों और शिक्षा के राष्ट्रीय पैटर्न पर सलाह देने के लिए' पहले विस्तृत शिक्षा आयोग का गठन किया गया. यह समुचित सामाजिक बदलाव और पुननिर्माण की ओर उन्मुख राष्ट्रीय स्कूल व्यवस्था विकसित करने के लिए अवधारणा और रणनीति बनाने की एक कोशिश थी.
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी शिक्षा के क्षेत्र में कई अवधारणाएं व प्रयोग विकसित किए गए, जिन्हें आज भी अधिकतर आधुनिक शिक्षाशास्त्री संदर्भ के रूप में इस्तेमाल करते हैं. बुनियादी शिक्षा की अवधारणा या नयी तालीम उनमें से प्रमुख है, जिसे न जाने कितनी बार खंगाला जा चुका है. गांधीजी की ग्राम आधारित कुटीर उद्योग की अवधारणा की तरह 'नयी तालीम' का भी वही हश्र हुआ, क्योंकि यह महसूस किया गया कि देश की राज्य व्यवस्था पर काबिज नए सामाजिक वर्ग के वृहत्तर हितों के साथ इन दोनों अवधारणाओं का कोई रिश्ता ही नहीं बनता. स्वप्नजीवी लोग अपने हवाई किले टूटने पर हायतौबा मचाते हैं, लेकिन शैक्षिक एजेंडा का मतलब दर्शन या शिक्षा शास्त्र के अबूझ आदर्श सेकहीं ज्यादा है.
हालांकि कोठारी आयोग की लंबी व गंभीर कोशिशों के फलस्वरूप घोषित की गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) ने उच्च स्तर पर देश की वैज्ञानिक व तकनीकी शिक्षा को आगे बढाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी, लेकिन राष्ट्रीय स्कूल व्यवस्था या जैसा कि कोठारी आयोग ने जिक्र किया था, समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था के सपने को साकार करने की कोई कोशिश नहीं हो सकी. 'उत्कृष्ट व स्पष्ट तर्कों की धारा' 'पुरानी आदतों के सुनसान रेगिस्तान' में खो गई. महान कवि टैगोर हमारी प्राचीन सभ्यता के मलिन सामाजिक भेदभाव का वर्णन करने के लिए अकसर इस काव्यात्मक उक्ति का इस्तेमाल करते थे.
यदि 'आधुनिक समाजवादी' नेहरू भूमि सुधार के एजेंडे को लागू नहीं करा सके, जिसका उन्होंने जुमलेबाजी की बजाय दिल की गहराइयों से 1936 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में बार-बार जिक्र किया था. और आखिकार देश के शक्तिशाली जमींदारों के साथ समझौता करते हुए उन्होंने भूमि को राज्य सूची में डाल दिया, ताकि उसका मनमाना इस्तेमाल किया जा सके तो राष्ट्रीय स्कूल व्यवस्था का एजेंडा भी भारत-चीन संघर्ष की भेंट चढ ग़या. 'जय जवान जय किसान' के नारे से ताजादम हुए रक्षा क्षेत्र को देश की नजर से सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान पर बैठा दिया गया. दरअसल, देश पर हमले का भय दिखाकर एक के बाद एक सभी सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा खर्च में भारी बढाेत्तरी करती गईं और इस वजह से शिक्षा व स्वास्थ्य दोनों सामाजिक क्षेत्रों को जरूरी वित्त का टोटा पडने लगा.
गौर से देखा जाए तो 1986 में आई शिक्षानीति से इसकी शुरूआत हुई. आधुनिक मीडिया के जादुई असर में सम्मोहित इस नीति ने शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने के नाम पर बडे तामझाम के साथ अनौपचारिक शिक्षा की शुरूआत की जो आखिरकार मौजूदा शैक्षणिक ढांचे को गिराने का संगठित अभियान साबित हुआ. बहरहाल, वह दौर कुछ अलग था, इसलिए अवधारणा के स्तर पर ही सही, 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति को राष्ट्रीय स्कूल व्यवस्था के प्रति अपनी प्रतिबध्दता की घोषणा करनी पडी. नब्बे का दशक न सिर्फ हमारे देश के, बल्कि पूरी दुनिया के इतिहास में निर्णायक साबित हुआ. तमाम चेतावनियों को नजरंदाज करते हुए - जनप्रिय होने के सारे आवरण उतार कर फेंकते हुए भूमंडलीकरण, निजीकरण व उदारीकारण के समर्थक नव-उदारवादी सत्ताधारियों ने देश के सामाजिक-राजनीतिक ढांचे को उलट-पुलट कर रख दिया. इस युग में लगभग ईश्वर की हैसियत रखने वाले 'बाजार' के अभ्युदय ने पहले से बीमार चल रहे सामाजिक क्षेत्र को अनाथ बना दिया. और उसे अपनी मौत मरने के लिए छोड दिया. खत्म हो रहे सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे के बीच स्वास्थ्य क्षेत्र में चलाए जा रहे प्रतिरक्षण अभियान की ही तरह मीडिया में चमक बिखेरने वाले साक्षरता अभियान और सर्व शिक्षा अभियान या ईजीएस जैसी अवास्तविक शैक्षिक परियोजनाएं देश के सार्वजानिक शैक्षिक ढांचे पर हो रहे जबरदस्त हमले छिपाने के लिए किए गए 'मुखौटे' भर हैं. कृपया कोई भ्रम न पालें, क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में आ रहे ये बदलाव अभूतपूर्व हैं जिनमें विश्व बैंक और उसके साथ सांठ-गांठ कर रहे नव उदारवादी तत्वों की असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और खुलेआम दखलंदाजी साफ नजर आ रही है. कहना न होगा कि इन बदलावों में देश के विकास और यहां तक कि उसकी बुनियादी एकता को नष्ट करने की खतरनाक क्षमता है.
भूमंडलीकृत अंतरराष्ट्रीय सत्ता के अधीन काम कर रही हमारी सरकारों के तमाम शैक्षिक पहलों का सार यही निकलता है: 'आम जन के लिए साक्षरता और खास लोगों के लिए शिक्षा'. इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि मंडलीकृत और बहुजनीकृत राजनीतिक माहौल में समाज के कमजोर तबके मसलन-जनजाति, दलित, अल्पसंख्यक और महिलाएं खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं.दूसरी तरफ, उर्ध्वगामी मध्यवर्ग सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों से अलग होकर 'शैक्षिक उत्कृष्टता के हरे-भरे बाग' में विचरण कर रहा है. बुरीतरह से टूटे-फूटे सार्वजनिक शैक्षिक ढांचे से अलग होने की कोशिश कर रही जनता को बाजार के दर्शन बघारने वाले 'यूजर चार्जेज' की बेडी अौर निजीकरण व सांप्रदायीकरण की हथकडी से बांधने की कोशिश कर रहे हैं.
समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था की परिभाषा
औपनिवेशिक काल में शुरू की गई मैकालेवादी शिक्षा व्यवस्था की अंतर्निहित अलगाववादी प्रकृति को पहचानते हुए और नयी तालीम व शांति निकेतन जैसी शैक्षिक तजुरबों की संभावनाओं के मद्देनजर 1987 के शिक्षा आयोग ने एक समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था और 'पडाेस में पाठशाला व्यवस्था' की परिकल्पना की:
जो जाति, धर्म, पंथ, संप्रदाय, आर्थिक हालत व सामाजिक 'हैसियत' का लिहाज किए बिना सभी बच्चों के प्रवेश के लिए खुला रहेगा.
जहां अच्छी शिक्षा हासिल करना धन-दौलत पर नहीं, बल्कि प्रतिभा पर निर्भर होगा.
जहां सभी स्कूलों में मानक स्तर की शिक्षा दी जाएगी और जिसमें अच्छी गुणवत्ता वाले संस्थानों की संख्या भी अच्छी-खासी होगी.
जिसमें कोई टयूशन फीस नहीं ली जाएगी.
जो आम अभिभावकों की जरूरतों पर खरी उतरे ताकि उन्हें अपने बच्चों को समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था के दायरे से बाहर चल रहे महंगे स्कूलों में भेजने को मजबूर न होना पडे.
इस आयोग ने 1967 में मौजूद शिक्षा परिदृश्य का वर्णन करते हुए टिप्पणी की थी:
'खुद शिक्षा सामाजिक अलगाव को तेज करने की ओर बढ रही है और इससे वर्ग विभेद की जडें ग़हरी हो रही हैं तथा खाई चौडी हो रही है. प्राथमिक स्तर पर जनता अपने बच्चों को उनमुफ्त स्कूलों में भेजती है, जिनका जिम्मा सरकार व स्थानीय निकाय उठाते हैं और जिनमें आमतौर पर घटिया शिक्षा दी जाती है.कुछ निजी स्कूल निश्चित रूप से बेहतर हैं, लेकिन उनमें कइयों की फीस इतनी ज्यादा है कि उन तक पहुंच पाना सिर्फ मध्य व उच्च वर्ग के बूते की बात है. माध्यमिक स्तर पर ज्यादातर अच्छे स्कूल निजी किस्म के हैं. उनमें भी कइयों की फीस इतनी ज्यादा है कि देश की शीर्ष 10 फीसदी आबादी को छोडक़र कोई उसका बोझ नहीं उठा सकता. हालांकि मध्यवर्ग के कतिपय माता-पिता बहुत बडा बलिदान करते हैं, तब जाकर अपने बच्चों को उन स्कूलों में भेज पाते हैं. इस तरह खुद शिक्षा में ही अलगाव के बीज छिपे हुए हैं - फीस वसूलने वाले कम संख्या में बेहतर निजी स्कूल उच्चवर्ग की जरूरतों को पूरा करते हैं और मुफ्त के सार्वजनिक स्कूल जिनकी संख्या काफी है बाकियों के काम आते हैं. इससे भी बुरा यह हुआ कि यह अलगाव दिनों-दिन बढता जा रहा है, जो आम व खास लोगों के बीच की खाई को और बढा रहा है.'' आज शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के लिए ये वाक्य भारत में शिक्षा की मौजूदा स्थिति को बयान करने वाले प्रतीत हो रहे हैं. दरअसल तीन दशक पहले आम और खास में जो अलगाव था वह आज कई गुना हो गया है.
अनौपचारिक शिक्षा व्यवस्था के जरिये अलगाव को बढावा
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है पिछले 60 वर्षों के दौरान शिक्षा में समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था को लागू करने की दिशा में हमारे कदम लगातार कमजोर होते गए. थाइलैंड के जोमतिएनमें यूनिसेफ, यूनेस्को, यूएनडीपी और विश्व बैंक द्वारा 1990 में आयोजित 'सबको शिक्षा' सम्मेलन के बाद तो समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था को संघातिक आघात पहुंचा. हालांकि 1986 की शिक्षा नीति में भी समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था को लागू करने के लिए कम से कम आश्वासन तो था लेकिन 1992 के नीति वक्तव्य (जोमतिएन सम्मेलन के बाद संशोधित) में इसे सिरे से गायब कर दिया गया.
इसके बाद एक तरफ तो सरकार ने अनौपाचारिक शिक्षा व्यवस्था या 'वैकल्पिक शिक्षा' की शुरूआत की, जिसने न सिर्फ औपचारिक स्कूलों को खत्म किया बल्कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के विकल्प के रूप में जन साक्षरता की शोशेबाजी को बढावा दिया. दूसरी तरफ सरकार ने समाज के चुनिंदा तबकों के लिए स्कूलों के एक नए स्तर नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूलों का निर्माण किया, जहां कुछ लोगों पर बेतहाशा खर्च करने की जरूरत पडी. देश की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को नीचा दिखाते हुए हमारे शहरों, कस्बों व गांवों के हर मुहल्ले में टयूशन की दुकानें, कोचिंग संस्थान और अजीबो-गरीब नाम वाले कॉन्वेंट स्कूलों की भरमार हो गई है. देश के मौजूदा सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों, खासकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बढते व्यावसायीकरण के मद्देनजर आम जन और खास लोगों के बीच पूरी तरह अलगाव हो चुका है जहां शिक्षा को खास लोगों के लिए आरक्षित कर दिया गया है और आम जनता को थमाया गया है साक्षरता का झुनझुना. संविधान के अनुच्छेद 45 में तय समय-सीमा को धता बताते हुए पिछले 50 वर्षों में सरकार ने अपनी करनी के जरिये अपने इरादे स्पष्ट किए हैं - 'चुनिंदा लोगों के लिए सरकार से वित्तपोषित अच्छी शिक्षा, जबकि बहुसंख्यक आबादी के लिए अनौपचारिक शिक्षा.'
जनता के लिए अनौपचारिक शिक्षा
बच्चों को कम से कम आठ साल तक प्रारंभिक शिक्षा मुहैया कराने की संवैधानिक वचनबध्दता (अनुच्छेद 45) का खुलेआम उल्लंघन करते हुए विश्व बैंक से आर्थिक सहायता लेकर डिस्ट्रिक्ट प्राइमरी एजुकेशन प्रोग्राम ( जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम या डीपीईपी) की घोषणा की गई जिसका उद्देश्य था औपचारिक शिक्षा को मजबूत करना, लेकिन जो आखिरकार इसकी अनदेखी करने वाला साबित हुआ, क्योंकि डीपीईपी ने अपना ध्यान पांच वर्ष तकप्रारंभिक शिक्षा पर लगाया. यही नहीं, शिक्षाशास्त्रीय शब्दावली में छिपाकर इस कार्यक्रम के जरिये अर्ध्दशिक्षकों व बहुस्तरीय शिक्षण की अवैध धारणाओं की शुरूआत की गई. हाल में शुरू किए गए सर्व शिक्षा अभियान (एमएसए) की जो सभी बच्चों को अच्छी प्रारंभिक शिक्षा मुहैया कराने की एक और सरकारी कोशिश लगती है, पिछले एक साल की कोई उपलब्धि काबिले जिक्र नहीं है. 2001-2002 में इस कार्यक्रम के लिए वित्तीय आवंटन को संसद में आम राय से पारित कर दिया गया. इस अवधि के लिए सर्व शिक्षा अभियान को 9,800 करोड रूपये आवंटित किए गए. इसमें से 96 प्रतिशत धन औपचारिक स्कूल व्यवस्था को मजबूत करने के लिए दिया गया था. इसके तहत नए प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्कूलों की शुरूआत, आकर्षक वेतन (5,000 रूपये-7, 000 रूपये) के जरिये प्रशिक्षित शिक्षकों की भर्ती और स्कूलों में शिक्षण सामग्री मुहैया कराया जाना था. लेकिन विडंबना यह है कि इस अवधि में इन मदों के लिए आवंटित राशि का सिर्फ 10 फीसदी (1,000 करोड रूपये) ही ज्ाारी किया गया. यही नहीं,जो थोडा बहुत धन खर्च किया गया उसे भी औपचारिक शिक्षा पर खर्च न करके बडे-बडे नामों वाली सस्ती व्यवस्था (एजुकेशन गारंटी स्कीम और वैकल्पिक शिक्षा जिसमें क्लास रूम व प्रशिक्षित शिक्षकों के बजाय झोपडी व अर्ध्द-शिक्षक की व्यवस्था है) पर बहाया गया. शिक्षा के लिए हर साल 20 हजार करोड रूपये की जरूरत है (तापस मजुमदार समिति की सिफारिश). इसके बरक्स 2001-2002 में प्रारंभिक शिक्षा के लोकव्यापीकरण का लक्ष्य हासिल करने के लिए सरकार ने इस जरूरत का सिर्फ पांच फीसदी धन मुहैया कराया. शिक्षा के लिए इतना बडा आवंटन और धन की इतनी कम उपलब्धता से स्पष्ट है कि सरकार का मकसद काम कम और शोर ज्यादा करना है. अगर पहले साल में सर्व शिक्षा अभियान का यही हाल है तो औपचारिक स्कूल व्यवस्था को इस सरकारी स्कीम में कोई उम्मीद नहीं पालनी चाहिए. पहले जिनकी गिनती स्कूल जाने वाले बच्चों में की जाती थी, उन्हें अब साक्षर होने के लिए वयस्क साक्षरता क्लासों का सहारा है, क्योंकि सरकार ने 9-14 वर्ष तक के बच्चों को राष्ट्रीय साक्षरता कक्षाओं में नामांकन कराने की इजाजत दे दी है.पहले वयस्क साक्षरता क्लास, अनौपचारिक केंद्र, तथाकथित वैकल्पिक स्कूल, मल्टीग्रेड क्लास औरअब एजुकेशन गारंटी स्कीम, (जिसमें अर्द्वशिक्षकों को नियुक्त किया जाएगा) इन सभी को तब तक स्कूली शिक्षा के विकल्प के रूप में स्वीकार कर लिया गया है, जब तक इनका संबंध सिर्फ गरीबों की शिक्षा से है. इस माहौल में बालश्रम की चक्की में पिस रही एक लडक़ी को संवैधानिक रूप से शिक्षित माना जाएगा, अगर वह तीन साल के लिए किसी अनौपचारिक स्कूल में और उसके बाद दो साल तक राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के वयस्क शिक्षा कार्यक्रम में नामांकन करवा ले. इससे कोई फर्क नहीं पडता कि उसने कभी औपचारिक स्कूल का मुंह देखा या नहीं.
चुनिंदा लोगों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा
1986 की शिक्षा नीति में पेश किए गए नवोदय विद्यालयों को 'पेस सेंटर' कहते हुए पेश किया गया, जिनमें सालाना एक छात्र पर सरकार के खजाने से 9,000 रूपये खर्च की जरूरत पडती है, जबकि गांव में चल रहे सरकारी स्कूलों में पढ रहे प्रति छात्र पर खर्च होने वाले महज 846 रूपये की इससे कोई तुलना ही नहीं है. हालांकि इसे प्रतिभाशाली छात्रों का भविष्य संवारने के विचार के साथ शुरू किया गया था. लेकिन उसकी प्रवेश परीक्षा का खाका कहीं से भी प्रतिभा को आकर्षित करने वाला नहीं है. यही नहीं, ये प्रवेश परीक्षाएं गांव विरोधी और बाल-विरोधी हैं. इस वजह से इनमें पढने वाले विद्यार्थियों में अधिकांश मध्य-आय वर्ग से हैं और निम्न आय वर्ग के बच्चे यहां अल्पसंख्यक. 1986 की शिक्षा नीति की समीक्षा करते हुए आचार्य राममूर्ति समिति ने इसका उल्लेख किया. खासकर समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था स्थापित करने के संदर्भ में ही समिति ने आम राय से इस बात की वकालत भी की कि अब एक भी नवोदय विद्यालय स्थापित न किया जाए. चुनिंदा बच्चों की प्रतिभा को निखारने से जो असमानता फैलती है, उसका तो बयान ही नहीं किया जा सकता. यह स्कीम काफी महंगी है - इस पर भारी-भरकम रकम खर्च होता है और प्रति विद्यार्थी खर्च भी बहुत ज्यादा है; सरकारी खजाने से चुनिंदा लोगों को इतनी महंगी शिक्षा, जबकि लाखों बच्चे औसतन अच्छी शिक्षा पाने के अपने वैधानिक अधिकार से वंचित हों, पूरी तरह से विभेदकारी है और उन समानता व सामाजिक न्याय के सिध्दांतों के खिलाफ है, जिनके लिए कोई भी जनतांत्रिक गणतंत्र वचनबध्द होता है.'
ग्लोबल मार्केट (विश्व बाजार) की ताकतों केदबाव के कारण शिक्षा के लिए अनौपचारीकरण और चुनिंदा लोगों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की दोहरी परिघटना के साथ-साथ देश के अंदर बैठी सांप्रदायिक शक्तियों, सरकारी स्कूलों में बच्चों को दी जा रही शिक्षा को दागदार बनाकर खतरनाक काम कर रही है.एनसीईआरटी के पाठयक्रम और पाठयपुस्तकें सामाजिक सच्चाइयों का आईना नहीं रह गयी हैं. वे देश की सत्तीसीन पार्टी के विचारों को अधिक से अधिक फैलाने वाले मुखपत्र की तरह लगते हैं. इस अवधारणा पत्र के अगले हिस्से में कॉमन स्कूल सिस्टम के छह प्रमुख पहलुओं का विश्लेषण किया गया है:
निजी स्कूल
आज भारत में निजी स्कूल अपने आप में एक धंधा है, जिससे शिक्षा की निजी दुकान कहना ज्यादा उचित होगा. इन स्कूलों की बडी तादाद में उपस्थिति इस बात का सबूत है कि सरकार देश के बच्चों को संतोषजनक शैक्षिक अवसर मुहैया कराने में विफल रही है लेकिन आमधारणा के विपरीत अधिकांश निजी स्कूलों में बहुत अच्छी शिक्षा नहीं दी जाती है. मौजूदा परिदृश्य में निजी स्कूलों का समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था में शामिल करने की कोठारी आयोग की दृष्टि दूर का ढोल बनकर रह गई है. पिछले 15 वर्षों में निजी स्कूल सामाजिक एकता नहीं, बल्कि अलगाव के औजार के रूप में उभर कर सामने आए हैं. शैक्षिक अवसरों में समानता हासिल करने की राह में ये सबसे बडी बाधा हैं.वास्तव में सरकार को निजी स्कूलों का अधिग्रहण करके उन्हें समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था में शामिल कर देना चाहिए.
वित्त
समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था की शर्त है कि शिक्षा की वित्तीय जिम्मेदारी सरकार की हो. आजादी के बाद गठित सभी शिक्षा आयोगों की सिफारिशों में भी यही बात कही गई है. इस बात पर आम राय है कि प्रारंभिक शिक्षा की वित्तीय व्यवस्था राज्य को करनी चाहिए और स्कूली शिक्षा क्षेत्र में निजी हितों को प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. जैसा कि पहले जिक्र किया जा चुका है, तापस मजुमदार समिति 1990 के बाद देश में कुकुरमुत्ते की तरह उग आई दोयम दर्जे की समांतर शिक्षा व्यवस्था को सस्ती वित्तीय सहायता देने की मनाही करता है.शिक्षा के लिए निजी जरिये से आ रहे धन को भी राज्य के माध्यम से ही खर्च किया जाए.
समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था काक्रियान्वयन
सन् 1964-66 के शिक्षा आयोग ने समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था को कारगर ढंग से लागू करने के लिए कुछ जरूरी सुधारों का सुझाव दिया था:
ॅ प्रारंभिक शिक्षा (खासकर प्राइमरी) पर खर्च में महत्त्वपूर्ण बढाेतरी. इससे शिक्षा के आधारभूत ढांचे व उसकी गुणवत्ता में जरूरी सुधारलाने में मदद मिलेगी. इस प्रक्रिया में सरकारी, स्थानीय निकायों व सहायता प्राप्त स्कूलों को सही मायने में पडाेस में पाठशाला में तब्दील करने में मदद मिलेगी.
ॅ पिछडे ऌलाकों, शहरी झोपड-पट्टियों, आदिवासी क्षेत्रों, पहाडी ऌलाकों, रेगिस्तानी व दलदली क्षेत्रों, सूखा व बाढ प्रभावित क्षेत्रों, तटीय क्षेत्रों व द्वीपों में स्कूली व्यवस्था में सुधार के लिए विशेष वित्तीय आवंटन का प्रावधान.
प्राथमिक स्तर पर सभी बच्चों खासकर भाषाई अल्पसंख्यकों को मातृभाषा में शिक्षा सुनिश्चित की जाए. माध्यमिक स्तर पर क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा को बढावा दिया जाए और मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा के अलावा अन्य भाषाओं में शिक्षा देने वाले स्कूलों को राजकीय सहायता बंद कर दी जाए.
अगले दस साल में चरणबध्द तरीके से समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था का क्रियान्वयन. त्वरित चुनाव प्रक्रिया, टयूशन फीस, कैपीटेशन फीस के बारे में न्यूनतम वैधानिक व्यवस्था.
ऐसे प्रोत्साहनों, दबावों और कानूनी रास्तों की तलाश की जाए, जिनके जरिये मंहगे निजी स्कूलों को समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था में शामिल किया जा सके.
हालांकि ये सभी सुझाव तीन दशक पूर्व दिए गए थे, लेकिन उसके बाद से एक भी सरकार ने इसके क्रियान्वयन के लिए कार्यक्रम लागू करने के प्रति पूरी वचनबध्दता नहीं दिखाई. आज सबसे बडी ज़रूरत इस बात की है कि इस विफलता के कारणों की पडताल की जाए और समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था के रास्ते की बाधाओं को दूर करने का काम किया जाए.
समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था को हासिल करने में विफलता के पीछे अकसर एक वजह बतायी जाती है कि जरूरतों को पूरा करने के लिए भारी-भरकम निवेश चाहिए. 1999 में गठित तापस मजूमदार समिति ने सुझाव दिया था कि अगर हर साल शिक्षा पर आवंटन में सकल घरेलू उत्पाद के 07 फीसदी के बराबर बढाेतरी की जाए तो अगले दस वर्षों में सरकार 6-14 आयुवर्ग के सभी बच्चों को शिक्षित करने का लक्ष्य हासिल कर लेगी.समिति ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि शिक्षा खर्च में बढाेतरी और उसकी गुणवत्ता में सुधार के बीच कोई समझौता नहीं किया जा सकता. क्योंकि जब तक संतोषजनक गुणवत्ता की शिक्षा मुहैया करने के लिए जरूरी शर्तों को पूरा नहीं किया जाता, तब तक सभी बच्चों का नामांकन और बीच में उनके स्कूल न छोडने की गारंटी नहीं दी जा सकती. 0-6 आयु-वर्ग के बारे में 2001 की योजना आयोग की रिपोर्ट ने सुझाव दिया है कि इसके लिए इस आयुवर्ग के सभी बच्चों को शामिल करने के लिए प्रति ईसीसीई सेंटर सात वर्षों की अवधि के लिए सालाना 10 हजार रूपये की जरूरत पडेग़ी.
आजादी के बाद गठित सभी शिक्षा आयोगों में एक बात पर आम राय रही है कि शिक्षा में समानता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए समान स्कूली शिक्षा व्यवस्थाको स्थापित करना पहला कदम है. लेकिन इन सिफारिशों को हकीकत में बदलने के लिए क्रियान्वयन की कोशिश आज भी एक हसीन ख्वाब ही बना हुआ है.

मंडल - जैसा मैं उन्हें जानता हूँ

- के. के. मंडल

(स्रोत - मंडल विचार)

स्व
. बी पी मंडल बिहार के कुछ गिने-चुने निर्भीक, ईमानदार और स्वाभिमानी नेताओं में थे. उन्होंने पद पाने के लिए स्वाभिमान से समझौता नहीं किया. 1967 में मैं कांग्रेस का संसदीय उम्मीदवार था. मुझे पराजित कर वे विजयी हुए. यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी होते हुए भी हमारा संबंध सौहार्दपूर्ण था.
मंडल जी का स्वाभिमान आज के छोटे राजनेताओं को पसन्द नहीं आता था. उन्हें ये लोग अभिमानी मानते थे. इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पडा. 1967 के संसदीय चुनाव के बाद महामाया प्रसाद सिन्हा मत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री बनाये गये. इनका स्वास्थ्य मंत्री बनना तत्कालीन सर्वमान्य नेता डा रामनोहर लोहिया को अच्छा नहीं लगा.वे चाहते थे कि मंडल जी संसद में आकर कांग्रेस सरकार का विरोध करें. किन्तु इसी बीच एक घटना घट गयी.श्री उर्मिलेश झा, डा लोहिया के तथाकथित आप्त सचिव ने मंडल जी के मंत्रिमंडल में बने रहने की आलोचना की. यदि इस तरह का बयान नहीं आता तो शायद वे मंत्रिमंडल से इस्तीफा भी दे देते. किन्तु इस बयान से वे आहत हुए और संयुक्त समाजवादी पार्टी से 28 अगस्त 1967 को नाता तोडक़र नयी पार्टी शोषित दल का गठन कर लिया. इस दल ने कांग्रेस की मदद से महामाया सरकार के खिलाफ 26 जनवरी 1968 को अविश्वास प्रस्ताव लाया जो 150 के मुकबले 168 से पारित हो गया. श्री बीएनझा, पूर्व मुख्यमंत्री ने कांग्रेस के समर्थन की कटु आलोचना की ओर इस गठबंधन का मुखर विरोध किया. 1 फरवरी 1968 को श्री बीपी मंडल के नेतृत्व में शोषित दल की सरकार बन गयी. यादव जाति से ये प्रथम मुख्यमंत्री हुए. श्री बीएन झा गुट के कांग्रेसी चुप नहीं बैठे और उनलोगों ने मंडल जी की सरकार को गिराने का मन बना लिया. शोषित दल सरकार के प्रबल समर्थकों में अन्य कांग्रेसी नेता थे. होली के अवसर पर राजनीतिक गतिविरोध तेज हो गयी थी.हमारे सहपाठी स्व महावीर प्रसाद यादव भी राज्य शिक्षा मंत्री बनाये गये थे. उन्होंने मुझसे आग्रह कियाकि तत्कालीन कांग्रेस विधायक दल के नेता महेश प्रसाद सिन्हा से मुलाकात की जाये ताकि कांग्रेस के रवैये का पता चल सके. श्री महावीर जी अन्य मंत्रियों के साथ में महेश बाबू के यहां गये. महेश बाबू शालीन व्यक्ति थे. उन्होंने मंत्रियों को हटाकर मुझसे वार्ता की क्योंकि मैं कांग्रेस का सदस्य था. उन्होंने संकेत दिया कि बीएन झा के समर्थक इस सरकार के खिलाफ हैं. वे लोग कांग्रेस से संबंध तोड लेने का फैसला करने जा रहे हैं. अत: आप मुख्यमंत्री जी से इस संबंध में वार्ता करें.इसी कम में मैं श्री भोला पासवान शास्त्री जी से भी मिला. उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे शोषित दल सरकार के विरोध में हैं और अविश्वास प्रस्ताव लाने जा रहे हैं. उनसे स्पष्ट संकेत मिल गया कि अविश्वास प्रस्ताव की सारी तैयारी हो चुकी है. उनसे मिलने के बाद मैं सीधे तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बीपी मंडल जी के निवास पर गया और उनसे वार्ता की. इससे वे तनिक भी विचलित नहीं हुए और उन्होंने निर्णय लिया कि परिस्थिति से मुकाबला किया जायेगा. उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया और उनकी सरकार गिर गयी. यद्यपि उनकी सरकार 47 दिनों की रही पर उन्होंने जिस प्रशासनिक दक्षता का परिचय दिया, उसकी चर्चा राजनीतिक क्षेत्र में वर्षों रही.
उनके जीवन का दूसरा अध्याय 1977 से शुरू होता है, जब वे जनता पार्टी के सांसद के रूप में निर्वाचित हुए. उनके हितैषियों को उम्मीद थी कि श्री मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल में काबीना मंत्री बनाये जायेंगे किन्तु ऐसा नहीं हुआ. कुछ दिनों के बाद उन्हें द्वितीय पिछडा वर्ग आयोग का अध्यक्ष बनाया गया. उद्धाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री, श्री मोरारजी देसाई के साथ तत्कालीन उपप्रधान मंत्री द्वय श्री जगजीवन राम और और चौधरी चरण सिंह भी थे. उद्धाटन समारोह के अवसर पर मुझे भी निमंत्रण मिला था, अत: इस अवसर पर उपस्थित था. इसका उल्लेख करना उचित समझता हू/ कि चौधरी चरण सिंह, इस आयोग के गठन के विरोध में थे क्योंकि वे जातिगत आरक्षण का विरोध करते थे और आर्थिक आधार पर आरक्षण के पक्षधर थे. मंडल जी ने मुझे भीपिछडा वर्ग आयोग का संवाचित सदस्य बनाया था. इस हैसियत से आयोग के कार्यकलाप में भाग लेने का मुझे अधिकार था.
1980 संसदीय चुनाव में इनके सामने धर्म संकट था. एक तरफ श्री मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री से हट गये थे. और चौधरी चरण सिंह, लोकदल के नेता, भारत सरकार के प्रधानमंत्री हो गये थे. बिहार के यादवों में एक भ्रामक प्रचार था कि जाट-यादव एक ही कुल के हैं. किन्तु बिहार के यादवों ने चौधरी चरण सिंह को फिर से प्रधानमंत्री बनाने के लिये संसदीय चुनाव में लोकदल के उम्मीदवारों का समर्थन किया. मंडलजी यादव बहुल मधेपुरा क्षेत्र से लड रहे थे अत: चुनाव का परिणाम मालूम था. फिर भी राजनीतिक नैतिकता के चलते असफलता को वरण किया. 1952 से ही वे विधायक और सांसद रहे और सदा मधेपुरा के हित की बात करते थे. मधेपुरा को जिला बनवाना भी उनके कार्यक्रम में था और उसके लिए सतत प्रयत्नशील रहे. आयोग का काम पूरा करके पटना लौटे तो उन्होंने मुझसे पूछा - क्या डा जगन्नाथ मिश्र मधेपुरा को जिला बना देगें? मैंने उन्हें कहा कि डा मिश्र मधेपुरा को जिला बनाने जा रहे हैं तो उन्हें बडी प्रसन्नता हुई.उद्धाटन के अवसर पर वे मधेपुरा में उपस्थित थे. उनकी अध्यक्षता में ही मधेपुरा जिला का निर्माण हुआ.
1980 में वे इस उद्देश्य से कांग्रेस में सम्मिलित हुए कि श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार पिछडे वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफरिश मान ले. सामूहिक हित के लिए कांग्रेस में सम्मिलित हुए. उनका व्यक्तिगत स्वार्थ कतई नहीं था.
जिन सामाजिक-राजनीतिक मानकों को उन्होंने स्थापित किया, उनको हम कायम नहीं रख सके. आज हम राजनीतिक क्षेत्र में उधार के राजनीतिक खिलाडियों से अपना काम चला रहे हैं और इसी में अपनी बहादुरी समझते हैं.

06 April 2008

अब न होंगे लहूलुहान कबूतर, लिखना

- शांति यादव

गोला औ बारूद हमारी संसद में

रूत बदली क्या खूब, हमारी संसद में.


'भूख' 'विकास' के मुद्दे ठंढे बस्ते में

'कफन' और 'ताबूत' हमारी संसद में.


लू के नए थपेडे लेकर आई है

घोटालों की धूप हमारी संसद में.


किसने लूटा देश ये सारा जग जाने

मिलते नहीं सबूत हमारी संसद में.


बीन लिये सारे गुल मा/ के दामन से

बैठे चुने 'सपूत' हमारी संसद में.


दाग भरे दामन भी पाक नजर आए/

वैसी मिले 'भभूत' हमारी संसद में.


हमें रसीले आमों की है आस, मगर

झडबेरी, शहतूत हमारी संसद में.


रात लिखकर न भूल जाना तू, सहर लिखना.

लिखने वाले तू जरा रुक के, मुकद्दर लिखना.


बाज ही बाज बनाने का तुझे शौक सही

अब न होंगे लहू-लुहान कबूतर, लिखना.


जो भी मज्लूम हैं मुद्दत से इस जमाने में

उनके हिस्से, सियासत का बस हुनर लिखना


अबके बंदूक के होठों पे गोलियों की जगह

प्यार के छंद औ गज़ल की बहर लिखना.


हैं बहुत दूसरों के ख्वाब चुराने वाले

उनको न नींद मयस्सर हो रात भर लिखना.


हरिजन को हरिजन की गाली, तुम भी देखो

कक्षा में उसपर भी ताली, तुम भी देखो.


दलित राम को चाय पिला फिर पांडे जी ने

कोने में ही रखी प्याली, तुम भी देखो.


साहब की कुर्सी पर बैठा देख उन्हें

दफ्तर में चल रही जुगाली, तुम भी देखो.


संविधान में कुछ हर्फों को खुदवाकर

कैसे चुप बैठा है माली, तुम भी देखो.


कैसे दम्मे की मरीज सी हांफ रही

'पचपन' की बूढी आजादी, तुम भी देखो.


नेताओं की देह से कैसे खिसक रही

होकर पानी-पानी 'खादी', तुम भी देखो.

05 April 2008

न्यायालय में सामाजिक न्याय

डा प्रभु नारायण विद्यार्थी

भारत का समाज हजारों वर्षों से वर्गीकृत है. समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित है. वर्ण व्यवस्था में जातियों की एक श्रृंखला ऊपर से नीचे की ओर आती है. इस श्रृंखला में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं.
ब्राह्मणों ने अपने को समाज में सर्वोच्च बनाए रखा. उनके द्वारा बनाये धर्मग्रंथों में उन्हें विशेषाधिकार का प्रावधान हुआ. उनके नीचे क्षत्रियों की श्रेणी है जो ब्राह्मणों के द्वारा बनाये विधि और नियम को कार्यान्वित करते और सत्ता शीर्ष में बैठते थे. ब्राह्मण उनके परामर्शदाता और मंत्री होते. क्षत्रिय उनके विचारों का अनुसरण करते. इन दोनों ने समाज में अपने लिए प्रतिष्ठित स्थान रखा. तीसरा स्थान वैश्यों को मिला जो समाज में उत्पादन और वितरण का कार्य करते. उत्पादक वैश्य कृषि और पशुपालन इत्यादि कार्य करते पर कतिपय उत्पादित वस्तुओं के वितरण एवं व्यापार से जुडे रहे. इस प्रकार वैश्य की भी प्रमुख श्रेणी बन गई-एक उत्पादक वैश्य और दूसरा वणिक वैश्य. ये वैश्य समाज के दोनों वर्ग कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य के माध्यम से ऊपर के दोनों वर्गों को राजस्व, कर तथा यजमानिका भुगतान करते. समाज की अर्थव्यवस्था इन पर आश्रित रही है. चौथा वर्ग शूद्र कहलाया जिनके पास सिर्फ श्रम था. वे खेत, खलिहान, पशुपालन, वाणिज्य, समाज तथा सेवा में अपना श्रम देते और परिवरिश पाते. यही वर्ग ऊपर के दोनों वर्गों को बेगार भी देते.
वैश्य और शूद्र साजिश के शिकार रहे . उन्हें बुध्दिजीवियों के द्वारा खण्ड-खण्ड कर दिया गया. पेशे के आधार पर वैश्य और शूद्र जातियों का निर्धारण हुआ. उत्पादक वैश्य में गोपालन करने वाले गोप, कृषि करने वाले कोयरी तथा कुर्मी, तेल के व्यापारी तेली, सुरा के व्यापारी सू/डी, राजदरबारों एवं सेना को कलेवा पहु/चाने वाला कलवार, केसर का व्यापारी केसरी, माहुर का व्यापारी माहुरी, पान का व्यापारी पनेरी, ताम्बुल का व्यापारी तम्बोली, पान में रसों को मिलाकर व्यापार करने वाला चौरसिया, नमक का व्यापारी नौनिया, सिन्दूर का व्यापारी सिन्दुरिया, पोत (जहाज) का व्यापारी पोद्दार, सोने का कारोबारी स्वर्णकार, ताम्बे का व्यापारी ठठेरा, का/से काव्यापारी कसेरा, तांत का काम करने वाला तांती, लोहे का लोहार, चमडे क़ा श्रमिक चमार, दु: साध्य (कठिन) कार्य करने वाले दुसाध, कपडा साफ करने वाला रंजक, बाल काटने वाला हजाम (नाई), बांस का काम करने वाला ब/सफोड, क़पडा बुनने वाला बुनकर, रूई धुनने वाला धुनिया, इत्यादि. विडम्बना यह रही कि ये सभी अपने अपने पेशों से जुडे छोटी-छोटी संख्या के समुदाय अपनी-अपनी जाति उपजाति में बंटी रह गई जिसका दुष्परिणाम इनमें राजनीतिक एकता का अभाव और उपजातीय दुराग्रह विद्यमान है. फलत: वैश्य जो बडी संख्या में हैं पर दबंग नहीं है, उन्हें राजनैतिक हिस्सेदारी नहीं मिल सकी है. शूद्रों को अनुसूचित जाति के नाम पर आरक्षण तो मिल गया पर वे भी खण्ड-खण्ड विखण्डित हैं. वहां भी दबंग अनुसूचित जातिया/ हिस्सा मार बैठी है.
इस प्रकार भारत की वर्ण व्यवस्था में जो वर्ग बुध्दि से जुडा रहा उसे श्रेष्ठ समझा गया और दुनिया/ की सारी सुविधाए/ तथा प्रतिष्ठा उन्हें उपलब्ध हुई. शासन प्रशासन, सैन्य व्यवस्था, अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन में उनका एकाधिकार व उनका पूर्ण आरक्षण रहा. उसमें घुसपैठ विधि विरूध्द मानी जाती जिसके नतीजे शम्बूक और एकलव्य को भोगने पडे. ठीक इसके विपरीत इस देश में श्रम करने वालों की प्र्रतिष्ठा नहीं रही. उन्हें पूंजी तथा बचत की भी संभावना नगण्य थी. अत: समृध्दि से दूर रह परम्परागत रूप से निर्धन और सुविधा वंचित रहे. जो जाति श्रम की अपेक्षा बुध्दि लगाते, नैतिकता की उपेक्षाकरते उन्हें अतिरिक्त सुविधाएं मिलती पर श्रमजीवी जातिया/ ईमानदारी से खून पसीना बहाकर भी डोम, चमार, दुसाध, महार, धोबी, नाई, नौनिया, पासी जैसे सम्बोधनों से निम्न दृष्टि से देखी जाती रहीं. ईमानदारी से श्रम करती जातियों को भर पेट भोजन नहीं मिलता, पर जो छल-प्रपंच से जीतीं वे समृध्द से समृध्दतर तथा प्रतिष्ठित से और प्रतिष्ठित होती चलीं गयीं. आज भी कमोबेश भारत में श्रमजीवियों की प्रतिष्ठा नहीं है. बुध्दिजीवी विलास कर रहे हैं और श्रमजीवी उपवास करने को विवश हैं. हालांकि वर्ण व्यवस्था की पकड क़ुछ ढीली हुई पर उत्पादक वैश्यों एवं शूद्रों में नव सामन्तों की एक नई श्रेणी सृजित हुई है.
वर्ण व्यवस्था में प्रारम्भ से ही विशेषाधिकार के कारण क्षत्रिय लाभ के स्थानों और पदों पर काबिज रहे. बीच-बीच में वैश्य और शूद्रों के द्वारा इस स्वार्थमूलक जड व्यवस्था के विरूध्द समानता और न्याय के लिए संघर्ष होता रहा . आज से करीब 2500 वर्ष पूर्व चार्वाक, महावीर और बुध्द ने वर्ण व्यवस्था में जातिगत श्रेष्ठता के सिध्दांत को दरकाया. अनन्तर मुस्लिम और अंग्रेज शासकों ने इसे प्रश्रय नहीं दिया. पर वे किसी नई व्यवस्था के लिए जोखिम उठाने के पक्षधर नहीं थे. उन्हें सत्ता में काबिज रहना था और प्रबुध्द वर्ग के वर्चस्व को तोडने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी. वे यथास्थिति के पोषक थे. पर आधुनिक युग में सामाजिक परिवर्तन की शुरूआत ज्योतिबा फुले से माना जा सकता है. छत्रपति शाहू ने वर्ण व्यवस्था के भेद भाव पूर्ण नीति के विरूध्द अभिवंचितों की भागीदारी के लिए सर्वप्रथम विशेष सुविधा की नीति अपनायी.
बाद में पेरियार रामास्वामी नायकर ने महसूस किया कि ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता और वर्चस्व के कारण किसी भी सुधारवादी कार्यक्रम को लागू होने नहीं देते. फलत: पहली बार राजनीतिक रूप से वंचित समाज को आरक्षण की वकालत की और कांग्रेस को छोडा. आजादी के बाद बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने आरक्षण की वकालत की और कांग्रेस को छोडा. आजादी के बाद बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर ने पूरी प्रखरता के साथ इस मुद्दे को उठाया और संविधान में इसका प्रावधान किया कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को शासन और प्रशासन में भागीदारी मिले. पर भारत की अधिसंख्य पिछडी ज़ातियों को यह सुविधा उपलब्ध नहीं हो सकी. पिछडाें का दबाव भी उतना प्रखर नहीं था कि सरकार उन्हें आरक्षण देने को विवश होती. फिर भी कमोवेश आवाजें उठती रहीं और काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछडे वर्ग को विशेष सुविधा प्रदान करने हेतु आयोग का गठन हुआ. काका कालेलकर वर्ण व्यवस्था से ऊपर थे ऐसा नहीं कहा जा सकता. फिर नैसर्र्गिक न्याय और आत्मा की आवाज पर कुछ विचार किया. पंडित नेहरू ने यथास्थिति के अन्यथा जाने में उनके हितकी हत्या होती महसूस की अत: काका कालेलकर की रपट को ठंढे बस्ते में डाल दिया.
डॉ लोहिया तथा अन्य समाजवादी नेताओं और अभिवंचित समाज के बुध्दिजीवियों के द्वारा यह आवाजें उठती रहीं कि देश की अधिसंख्य पिछडी ज़ाति को देश की सत्ता और प्रशासन में भागीदारी मिले. 1977 में संयुक्त मोर्चे की सरकार बनी और विवशता की स्थिति में मंडल पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन हुआ. वह रिर्पोट भी इन्दिरा गांधी की कांग्रेसी सरकार ने फिर बहुजनों के हित की उपेक्षा कर उसे शीतगृह में डाल दिया. पुन: 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने संशोधित रूप में इसे लागू करने का जोखिम उठाया. इस प्रकार सामान्य सरकारी सेवाओं में पिछडाें के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ.
पर न्यायपालिका अछूता रह गया. न्यायपालिका के कनीय पदों पर सीमित रूप से आरक्षण की नीति लागू की गयी. उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालय और सीधी भर्ती की प्रक्रिया अब भी जारी है. नतीजतन देश के करीब 90 प्रतिशत पदों पर सवर्ण जातिया/ काबिज हैं. विडम्बना यह है कि अनेक उच्च न्यायालयों में एक भी न्यायाधीश अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक समुदाय तथा पिछडे वर्ग के नहीं है. इसका दुष्परिणाम चिन्ता का विषयहै. न्यायपालिका में कार्यरत वकीलों का एकाधिकार भी टूट नहीं रहा है.
वे न्यायालयों में अघोषित कारणों से वर्चस्वी बने हुए हैं. सीधी बहाली में आये न्यायाधीशों की जातीय और योग्यता के विश्लेषण करने से चौंकाने वाले परिणाम आते हैं. अभिवंचित वर्ग के प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण उन्हें वकालत और न्याय में दुष्परिणाम देखने को मिलते हैं. प्रखर से प्रखर अभिवंचित वर्ग के अधिवक्ता उपेक्षित और अनदेखे रह जाते हैं. अम्बेडकर मिशन पत्रिका के हवाले यह स्थिति उल्लेखनीय है कि देश भर में अभी 21 उच्च न्यायालय है और जिनमें न्यायधीशों के 647 पद स्वीकृत हैं जिसमें अभी कुल 503 न्यायाधीश कार्यरत हैं. वैध 144 पद रिक्त पडे हैं. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों, पिछडा वर्ग और महिलाओं के लिए आरक्षण नहीं है. उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय में 5 प्रतिशत ही न्यायाधीश अभिवंचित समुदाय के हैं. इस प्रकार 95 प्रतिशत इन पदों से वंचित है.
उच्च न्यायालय पटना की स्थिति भी चौंकाने वाली है. पटना में न्यायाधीशों के 33 पद हैं जिसमें 7 पद रिक्त है और और 26 न्यायधीश कार्यरत हैं. ये 7 रिक्त पद वकील कोटे से न्यायाधीश की नियुक्ति का है.
उपर्युक्त स्थिति इस बात के सूचक हैं कि न्यायपालिका में अभिवंचित वर्ग की भागीदारी नगण्य है. यह स्थिति चिन्तनीय है.ऐसी स्थिति में भारत की संसद में जिनमें अभिवंचितों के प्रतिनिधियों की संख्या अधिसंख्य है, की आंख खुलनी चाहिए और इस बात की जोरदार आवाज उठनी चाहिए कि समाज के उपेक्षित समुदाय को न्यायपालिका की नियुक्तियों में समानता और न्याय मिले. भारतीय न्यायिक सेवा प्रारम्भ हो, एक वर्ग विशेष का एकाधिकार समाप्त हो, अभिवंचितों के प्रति न्याय देने के लिए आरक्षण लागू हो. सामान्य सरकारी सेवाओं की तरह पाए गए गुण-दोष के आधार पर न्यायाधीशों को भी उत्त्तरदायी बनाया जाये. तब कहीं न्यायपलिका में भारत के गणतंत्र होने का औचित्य दीख पडेग़ा.

पवित्र साहित्य का सच

डा. रामचंद्र प्रसाद यादव

जिस प्रकार स्मृतिकारों, संहिता-स्रष्टाओं ने भारतीय समाज को श्रेनियों में बांटकर चार प्रकार के मानुस का निर्माण किया, उसी प्रकार साहित्य के इतिहासकारों, समालोचकों ने साहित्य को श्रेणियों में बांटकर पवित्र साहित्य का निर्माण किया. इतना ही नहीं सभ्यता के आदिकाल में रचनाकारों ने इन साहित्यिक कृतियों द्वारा भारतीय जन-जीवन पर ऐसे करतब दिखाने शुरू किये कि संस्कृत के प्रसिध्द विद्वान मैक्समूलर तक को अचंभित होना पडा. यह आकस्मिक नहीं है और न अकारण है कि प्रत्येक भारतीय के दिल में इस पवित्र साहित्यिक रचनाओं के प्रति गहरी श्रध्दा है. सभ्यता के शुरूआती दौड में ही इन रचनाओं का इतना पांडित्यपूर्ण हो जाना मामूली गौरव की बात नहीं है.धार्मिक साहित्य की श्रेणी में इन पवित्र रचनाओं को मान्यता मिली है. फलस्वरूप आज रामायण, महाभारत, गीता, कुरान और

बाईबिल ने भारतीय जन-मानस को इस तरह प्रभावित किया कि उन्हें भुला पाना असंभव है. इसकी गुणवत्ता को लेकर 20 वीं सदी के प्रख्यात दार्शनक ओशो रजनीश तक को स्वीकारना पडा कि अगर हम इन रचनाओं को भुला दें, तो यूरोपियन, इस्लामिक एवं भारतीय साहित्य में बचेगाक्या?

इस आलेख के माध्यम से इन धर्म ग्रन्थों की साहित्यिक श्रेष्ठता का प्रश्न खडा करना मेरा उद्देश्य नहीं है. बल्कि हटकर यह देखने का प्रयास है कि वर्तमान समय में ये कृतियां मानव समाज की प्रगति और उसको समाज की मुख्यधारा में लाने में कितना सहायक है और अगर ऐसा कर पाने में ये रचनाएं असरदार और सार्थक भूमिका निभान में असमर्थ है, तो इन्हें बेवजह सर पर ढाेते रहने का क्या औचित्य हो सकता है?

युग-युग से साहित्य की परिभाषा करने वालों ने इसे सत्य कहा. इसे शिव या मंगल करने की क्षमता से भरपूर माना गया.साथ हीं सुन्दर भी माना गया. अब हमें देखना है कि उक्त परिभाषा की परिधि में ये धर्म-ग्रन्थ कहां तक आते हैं. अगर हम अति-पवित्र ग्रन्थ रामायण को हीं लें, तो इसकी पूर्व में स्थापित श्रेष्ठता के अलावे इसमें व्यक्त तथ्य मुझे विस्मित करते हैं. एक तरफ तो हम पाते हैं कि राम कथा अन्याय के विरूध्द न्याय की विजय का सार्थक एवं सक्षम प्रतीक है.दूसरी ओर यह भी भुला पाना मुश्किल है कि समाज में सबसे निम्नतल पर शूद्र और नारी है और ये समाज में दंडित होकर जीने को अभिशप्त है. आज केपरिप्रेक्ष्य में शूद्र और नारी को सामाजिक न्याय के अधीन समान स्तर पर लाने का सरकारी रंगमंचीय अभिनय चल रहा है. लेकिन सच तो यह है कि आज भी भारतीय समाज इस विषयुक्त जुमले से पूरी तरह निजात नहीं पा सका है. उल्टे रामायण की पंक्तियों को आज भी समाज के सुविधा भोगी वर्ग आदर्श वाक्य ही समझते हैं और इसे मनुवादी आदेश समझकर शोषित पीडित जनसमुदाय पर कहर बरपा रहे हैं. महाभारत बेशक रामायण से कहीं अधिक ही जीवन के करीब और कृष्ण के चरित्र के माध्यम से अपने अधिकार के लिए संघर्ष की वकालत करता है. लेकिन गुण और कर्म के आधार पर वर्गीकृत महाभारत का समाज इस बात की इजाजत नहीं देता कि सूतपुत्र कर्ण राजा बनने का अधिकारी हो सकता है. द्रोणाचार्य जैसे अधम गुरू के निर्णय ही स्वागत योग्य हैं. एकलव्य जैसे प्रतिभाशाली चरित्र का शौर्यबल ब्रह्मा के मुख से जन्मे द्विजों द्वारा दफन कर दिया जाता है. आर्य और अनार्य का बनावटी संघर्ष दिखाकर समूचे भारत को युध्द की आग में इस कदर झोंक दिया गया कि आज भ ी हम सामाजिक समरसता के सिध्दान्त को जीवन में नहीं उतार पाते हैं. इस तरह यह महान ग्रंथ भी आपससद्भावना के बदलेर् ईष्या, द्वेष का स्मृति ग्रन्थ बनकर रह गया. जो साहित्य सामाजिक कल्याण, समानता और सौहार्द का अलख न जगा पावे, उसमें पवित्रता किस बात की. समाज के कुछ वर्गों द्वारा मनुस्मृति को रामायण और महाभारत से अधिक महत्वपूर्ण और पवित्र ग्रन्थ माना गया है. मनु की विद्वता को लेकर कोई मतभेद नहीं हो सकता . लेकिन इस श्रेष्ठ साहित्य को लेकर संकट वहां उठता है, जब यह बात आज के वैज्ञानिक समाज को गले के नीचे नहीं उतरती कि समाज में सबको सम्मानित जीवन जीने का अधिकार नहीं. ज्ञान और स्मृति से वंचित जमात मनु के इस आदेश का कोई संगठित प्रतिरोध तो नहीं कर सका, लेकिन आज उस आदेश का खुला विरोध व्यक्गित और समाज के स्तर पर जमकर हो रहा है. समाज को बांटने वाला यह ग्रन्थ भी अगर पवित्रता की श्रेणी में आता है, तो लगता है कि आज का भारतीय समाज हजारों वर्ष पुराने निकृष्ट विचारों के शिकंजे से मुक्त नहीं हुआ है. ऐसे ग्रन्थों से समाज का समुचित विकास तो नहीं हाे सका, बल्कि भयंकर विध्वंस के संकेत जरूर सामने है.

माना जा रहा है कि भारत विविध संस्कृतियों का देश है और यहां हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी आपस में मिलकर रहते हैं. श्रेष्ठ साहित्य मनुष्य के सामाजिक संबंधों में कडवाहट की अनुशंसा नहीं करता है. श्रेष्ठ साहित्यकार अपनी रचना के माध्यम से मनुष्य-जीवन और उसके समाज की आलोचना इसलिए करता है जिससे वह अपने जीवन-मूल्यों को समझे और रचनाकार की जीवन-दृष्टि उसके आदर्श के रूप में उसे उस संसार की और अग्रसर करावें जहां आपसी प्रेम और श्रध्दा हो. कुरान एक धर्मग्रन्थ के रूप में हमें ईमानदारी, त्याग और मिलकर रहने का संदेश देता है. लेकिन अपना विचार अगर यह जबरन लोगों पर थोपता हो तो यह ग्रन्थ सबका गुरू ग्रन्थ नहीं बन सकता. कुरान के अध्येता यह प्रमाणित कर चुके हैं कि मुहम्मद साहब शिक्षित नहीं थे और खुदा के बन्दे /प्रतिनिधि थे और खुदा ने उनके मुख से कुरान की रचना करवायी. अगर यह खुदा की कृति है तो उसमें सबके लिए मंगल की भावना होनी चाहिये.

ईश्वर तो सबके लिये है. मानव कल्याण ही उसका उद्देश्य है. तो फिर कुरान पढ-पढक़र वैसे लोगों को काफिर बताकर क्यों हत्या की जाती है, जो जबरन इसके शरीयत को मानने को तैयार नहीं. कुरान की पवित्रता पर यहीं प्रश्न चिन्ह खडा होता है. विभिन्न धर्मों के बीच एकता को जो धर्म-ग्रन्थ मजबूत करे, वही पवित्र कहा जाना चाहिये. अत: कुरान सरीखे पवित्र साहित्य का भी आज के संदर्भ में मूल्यांकन अनिवार्य है.

बाईबिल को संसार के श्रेष्ठतम पवित्र ग्रन्थों में एक समझा जा रहा है. प्रभु इशु मशीह के जीवन-संघर्ष का ग्रन्थ अनुपम कृति है. समाज कल्याण की भावना से उत्प्रेरित ईसा ने जीवन के अंतिम क्षण में भी प्रेम और बलिदान को अपने जीवन को ध्येय बनाया. अपने हत्यारों के लिये भी उन्होंने ईश्वर से क्षमा मांगी और कहा- ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं. लेकिन आज के इस वैज्ञानिक युग में इस धर्म ग्रन्थ में वर्णित आदेश एशिया और यूरोपियन समाज को जोड पाने मेंकहां तक सफल है, विमर्श का मामला बनता है. जीसस के शिष्य सत्ता के शीर्ष शिखर पर जाकर इस तथ्य को भूल जाते हैं कि उनमें जीसस द्वारा निदेशित कितने गुण बच गये हैं. व्यक्ति को कौन पूछे देश के देश इनके बमों से ध्वस्त हो रहे हैं. बाईबिल की दुहाई दे-देकर वे संसार को समूल नष्ट कर रहे हैं. इतने शक्तिशाली होते हुए भी अहंकार के आगोश में वे समझ नहीं पा रहे हैं कि वे क्या कर रहे हैं. उस पर भी वे चाहते हैं कि उनके कुकृत्यों के लिए कोई जीसस अवतरित होकर ईश्वर से क्षमा मांगे. भक्ति और श्रध्दा से ही परमात्मा के दर्शन होते हैं. लेकिन अंधभक्ति से न तो ईश्वर मिलते, नहीं आत्म-ज्ञान की संभावना है. जिस प्रकार अंध राष्ट्रवाद और तथाकथित हिन्दुत्व और स्वदेशीकरण के लुभावने मुहावरे न भारत की राष्ट्रीयता की, न हिन्दुत्व की और न स्वदेशी की रक्षा कर पाने में सक्षम है ठीक उसी प्रकार न तो रामायण न तो महाभारत , न तो मनुस्मृति या फिर न तो कुरान या न बाईबिल भारत सहित संसार की मनुष्यता की रक्षा कर पाने में सक्षम है. अन्य साहित्यिक मानदंडों के कारण ये अति श्रेष्ठ साहित्य अवश्य हो सकते हैं. लेकिन आज का नया मनुष्य इन ग्रन्थों की पवित्रता को स्वीकार करने के पूर्व इनकी पवित्रता के सच की चीर-फाड एक कुशल शल्य चिकित्सक की भांति अवश्य करना चाहेगा.

03 April 2008

बंद है सिमसिम

फज़ल इमाम मल्लिक

फिर क्या हुआ दादी अम्मां?
अली बाबा और मरजीना को डाकुओं के सरदार ने मार दिया? डाकुओं के सरदार के अलीबाबा के घर भेस बदल कर आने की बात कहते-कहते दादी अम्मां अचानक कहानी कहते-कहते अक्सर रूक जातीं. कहानी के इस पडाव पर थोडा सा दम लेने के लिए वह ठहरतीं तो हम सभी की उत्सुकता उन्हें फिर से कहानी शुरू करने के लिए प्रेरित करती.यूं भी दादी अम्मां का इस जगह आकर ठहरना हमें काफी अखरता था क्योंकि उस समय तक हम बगदाद की गलियों से गुजरते हुए अलीबाबा के मकान में पहुंच चुके होते जहां मरजीना थी, अलीबाबा थे और चोरों का सरदार असफंदयार था. तेल की मटकियां थीं, जिनमें तेल की जगह चालीस चोर थे और वे अलीबाबा से बदला लेने के लिए वहां पहुंचे थे. अलिफ लैला की इस कहानी को हम पता नहीं दादी अम्मां से कितनी बार सुन चुके थे लेकिन हर बार सुनते हुए लगता कि हम कहानी पहली बार सुन रहे हैं. इसलिए जहां दादी अम्मां पान खाने या सांस लेने के लिए थोडा भी ठहरतीं सारे बच्चे उन्हें फौरन कहानी पूरा करने के लिए कहते. कोई ठुनकता, कोई जिद करता और कोई शोर मचाता. दादी अम्मां भी हम लोगों की शरारतों पर हंसती हुई कहानी के सिरे को वहीं से थामतीं जहां उसे छोडा था.
नहीं बेटा मरजीना बहुत चालाक लडक़ी थी. उसने देख लिया था कि मटके में तेल नहीं है. और तेल व्यापारी के भेस में डाकू असफंदयार है और जो मटके वह साथ लाया था उसमें तेल नहीं बल्कि उसके चालीस साथी हैं. दादी अम्मां फिर मरजीना की चालाकी से चालीस चोरों और उसके सरदार के मार जाने की बात कहती हुई सभी को नसीहत देतीं, तो बच्चों! एक बात जान लो बुरे का अंजाम हमेशा बुरा होता है. चालीस चोर और उसका सरदार ज़ालिम था, वह लोगों को लूटता था तो इसका अंजाम तो यह होना ही था.
लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्लू बुश को उसकी दादी मां ने यह कहानी नहीं सुनाई होगी. अगर सुनाई होती तो बसरा, नासीरिया, मसूल, कर्बला और बगदाद में उनके विमान हजारों मासूमों को बमों का निशाना न बनाते. उनके हवाई जहाज बेकसूर-मजलूमों के सर से छत नहीं छीनते और उनकी मिजाइलें बच्चों-बूढों को अपंग नहीं बनाती. लेकिन इराक में ऐसा हुआ और तबाही का एक ऐसा खेल खेला गया जो सालों पहले उसी बगदाद में कभी यजीद ने खेला था. सत्ता के लिए मजलूमों का गला यजीद ने भी काटा और लहू बुश ने भी बहाया है. इस्लामी आतंकवाद का हव्वा खडा कर पूरे विश्व में अपनी दादागिरी साबित करने के लिए बुश का इराक पर हमला दरअसल इंसानियत और सभ्य समाज पर ही हमला था. पूरा विश्व एक तरफ और बुशव कुछ देश एक तरफ. विश्व और संयुक्त राष्ट्र को ठेंगे पर रख कर बुश ने इराक पर हमला किसी आतंकवाद को खत्म करने के लिए नहीं किया था. मानते हैं कि सद्दाम हुसैन तानाशाह थे. वे जालिम थे, वे लोगों पर जुल्म ढाते थे. उनके यातनागृह में सैंकडाें लोगों का कत्ल किया गया है. लेकिन बुश कौन से दूध के धुले हैं. विश्व में आतंकवाद को बढावा देने में अमेरिका का कम हाथ तो नहीं है. जूनियर हों या सीनियर, बुश से बडा आतंकवादी कौन हो सकता है भला. विश्व में आतंकवाद के नाम पर जिस तरह का बर्ताव दूसरे देशों के साथ वे कर रहे हैं वह किसी तानाशाह से कम है क्या.
यजीद को भी सत्ता और शक्ति का घमंड था और घमंड में चूर उसने इराक क़े ही कर्बला में इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों को फरात नदी के पास लगभग बंदी बना लिया था और फिर पहली मुहर्रम से चली यह लडाई दसवीं
मुहर्रम को खत्म हो गई थी. इमाम हुसैन शहीद कर डाले गए थे. बच्चे और औरतों को भी यजीद ने नहीं बख्शा था और उसने अरब मुल्कों में अपनी बादशाहत का एलान कर दिया था.
वह मुहर्रम का ही महीना था जब बुश की सेनाओं ने इराक पर हमला बोला था और सत्ता व शक्ति के दंभ में मदमस्त बुश ने सद्दाम हुसैन और उनके अनुयाइयों के खिलाफ निर्णायक लडाई छेड दी थी. सच तो यह है कि इसे जंग कहा भी नहीं जा सकता. यह तो एक बर्बर और तानाशाह की एकतरफा कार्रवाई थी. जो सत्ता और शक्ति के नशे में चूर पूरे विश्व को अपनी ठोकरों पर रखने का सपना अपनी आंखों में पाले हुए था. आधुनिक हथियार, बख्तरबंद गाडियां, युध्दपोतों, मिजाइलों, कलस्टर बमों, विमानों से लैस विश्व की सबसे ताकतवर सेना ने एक छोटे से देश को चारों तरफ से घेर कर 'बडी सफलता' की बिसात बिछा ली थी. टीवी पर इराक में दौडती बख्तरबंद गाडियों और विमानों को बम बरसाते देख कर यजीद की याद ही आती रही. कर्बला से बगदाद तक एक तबाही का मंजर ही नजर आता है और ठीक दूसरी तरफ व्हाइट हाउस में जार्ज बुश सब कुछ ठीक होने का दावा करते हुए विश्व के नक्शे में कोई दूसरा देश तलाश रहा होता है. वह तुर्की हो सकता है, ईरान या भारत भी. लेकिन देर या सवेर एक और देश बुश की बर्बरता का शिकार होगा. अभी तो ऐसा ही दिखाई दे रहा है
बगदाद, बसरा, कर्बला या इराक क़े दूसरे शहर तो न जाने मेरे भीतर कब से मौजूद थे. शहरजाद-जहांजाद और कहानी सुनने के शौकीन बादशाह के किस्से सुन-सुन कर तो हमारा बचपन बीता था. अमेरिका और ब्रतानवी फाैजें जब बसरा, बगदाद पर बम बरसा रही थी. और मिजाइलों के निशाने पर इराकी अवाम थे तब मुझे वह बादशाह( जिनका नाम शायद शहरयार था) काफी शिद्दत से याद आ रहे थे. याद आ रही थीं अलिफ लैला की कहानियां, उन कहानियों के किरदार और इराक क़ी संस्कृति सभ्यता का इतिहास. वह इतिहास जो हमें हमारे बुजुर्गों ने छुटपन में ही हमें बताया है. घोघो रानी से लेकर एक था राजा-एक थी रानी और सिंदबाद से लेकर अल्लादीन और जिन की कथाओं के बीच ही पांव-पांव चलना सीखा और फिर इन कहानियों की छांव में ही पले-बढे. उन दिनों तब न तो कोई हीमैन था और न ही कोई स्पाइडरमैन और न शक्तिमान. हमारे हीरो तब अल्लादीन और अली बाबा ब मरजीना ही हुआ करते थे. अलिफ लैला की एक चमत्कारिक दुनिया थी जहां सब कुछ अपना-अपना सा लगता था और किताबों में 'अली बाबा ऐंड फोर्टी थीव्स' की कथा पढते हुए हमें वह रोचकता दिखाई नहीं पडती थी जो मजा दादी मां के अली बाबा और चालीस चोरों की कहानी सुनाने में था. इन किरदारों को न जाने कितनी बार हमने अपने भीतर-बाहर जिया है, यह याद नहीं. और सच तो यह है कि यह किरदार आज भी हमारे भीतर कहीं मौजूद हैं, पूरी जीवंतता के साथ.
अलिफ लैला की वह कहानियां सिर्फ कहानी भर तो नहीं है. इस सच को बुश या टोनी ब्लेयर तो नहीं समझ सकते. उन्हें तो तेल और तेल की के दिन बहुत थोडे होते हैं. और संस्कृति-सभ्यता को न तो उनके विमान मिटा सकते हैं और न ही मिसाइलें. लेकिन समय उन्हें जरूर उनको मिटा देगा.
निरपराध और निहत्थे लोगों का गला काटना और जुल्म ढाना किसी भी कौम ने नहीं सिखाया है.बच्चों और मजलूमों की आंसुओं की बात करने वाले बुश को आतंकवाद की सुध तब आई जब उनके खुद के घर में आग लगी. नहीं तो यह वही अमेरिका है जिसने ओसामा बिन लादेन को पैदा किया. इस्लामी आतंकवाद की दुहाई देने वाले बुश या अमेरिका को कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों की भी सुध लेने की फुर्सत नहीं मिली. लेकिन जब उनकी दो इमारतों को उनके ही विमानों के सहारे आतंकवादियों ( हालांकि अभी यह पुख्ता सबूत नहीं मिला है कि इस कार्रवाई के पीछे किसका हाथ है) ने मलबे के ढेर में बदल दिया तब उन्हें आतंकवाद की परिभाषा समझ में आई.
लेकिन यह भी अजब इत्तफाक है कि अली बाबा और चालीस चोरों की कहानी कई फेरबदल के साथ बुश पर बिल्कुल फिट बैठती है. आखिर सिससिम के खुलने का इंतजार तो है बुश को. सिमसिम यानी तेल के कुएं से खज़ाने को भरना.अलीबाबा की कहानी में भी तेल व्यापारी का जिक्र तो आया ही है. यानी तेल तब भी था और तेल अब भी है. बाकी का सारा खूनखराबा तो इस जंग को जायज़ ठहराने के लिए बुश की दिमाग क़ी ही उपज है.ठीक उस बादशाह की तरह जिसे कहानियां सुनने का शौक था और इस शौक क़े लिए वह किसी की गर्दन भी उडा देता था और इस के पीछे उसका अपना तर्क था.
अलिफ लैला की कहानियां सुनते हुए अक्सर इराक क़ी गलियां और वहां का एक जादुई संसार आंखों में बस जाता था. यह संसार आज भी हमारे भीतर कहीं है. इन कहानियों के किरदारों में अक्सर अपने आप को देखते हुए बालपन की गलियों से निकल कर जवानी की दहलीज पर हम ने पांव धरा. लेकिन अलिफ लैला की कहानियां और बादशाह शहरयार आज भी हमारे सामने पूरी जीवंतता के साथ मौजूद है. इसी बादशाह की बदौलत ही तो अलिफ लैला का जादुई संसार हमारे भीतर एक नई दुनिया को आबाद कर गया. बादशाह न होता और उसे हर रात नई कहानियों सुनने का जुनून न होता तो न तो यह कहानियां होतीं और न ही वे किरदार जिनके बीच हमारा बचपन गुजरा है. बादशाह के वजीर की बेटी शहरजाद और जहांजाद ने उस सनकी बादशाह को हर रात एक नई कहानी सुना कर साहित्य में किस्सागोई की पंरपरा को एक नया आयाम दिया था. एक हजार एक रातें और इतनी ही कहानियां. 'बगदाद का चोर' हो या 'बगदाद का काजी' या फिर दूसरी कहानियां, इन कहानियों के नायक या खलनायक किसी न किसी रूप में मौजूद है. इराक पर एकतरफा लडाई में हमने इन खलनायकों को देखा है. व्हाइट हाउस में बोलते हुए, अपनी फाैजों को बेकसूर और असहाय लोगों पर बम बरसाने का आदेश देते हुए और दूसरे देशों को धमकाते हुए. अलिफ लैला की इन कहानियों ने ही शायद हमारी दादी-नानियों को भी कहानी सुनाने के लिए प्रेरित किया होगा. रात में कहानियां कहने और सुनाने का सिलसिला पता नहीं कब शुरू हुआ होगा.लेकिन हमने अपनी दादी-नानियों से रातों में खूब कहानियां सुनी हैं. दिन में कोई कहानी नहीं सुनाता था. दिन में हम सब जब कभी कहानी सुनने की जिद करते, दादी या फिर मां हम बच्चों के डांट देतीं. कहतीं, दिन में कहानी नहीं सुनाई जाती, मुसाफिर रास्ता भूल जाते हैं. अब रात में कहानियों का चलन खत्म हो गया है और हमारी दादी-नानियों की कहानी के किरदार कहीं गुम हो गए हैं. अब दिन में ही टीवी के बक्से हमें तरह-तरह की कहानियां सुनाते हैं और सिर्फ मुसाफिर ही नहीं, समाज, देश और विश्व रास्ता भटक गया. पहले अफग़ानिस्तान, फिर अयोध्या और अब इराक में हमने इसे देखा है.
लेकिन सिमसिम तो इतना कुछ होने के बाद भी बंद ही है. हालांकि बुश कोशिश में जुटे हैं कि सिमसिम खुले और वे असफंदयार की तरह तेल के कुंओं पर अपना कब्जा जमा कर अपना घर भरें. इस्लामी आतंकवाद का ढिंढोरा पीटने वाले बुश भले अपनी पीठ थपथपा रहे हों लेकिन पहले अफग़ानिस्तान और अब इराक पर की गई उनकी बर्बर कार्रवाई से आने वाले दिनों में निपटना उनके लिए आसान नहीं होगा. आतंकवाद की बात करते हुए इजराइल की पीथ थपथपाने वाले बुश को फिलिस्तीनियों का दुख दिखाई नहीं देता है क्योंकि यहां आकर आतंकवाद की परिभाषा बदल जाती है. इराक क़ी सडक़ों और गलियों में बर्बर अमेरिकी फौजों की चहलकदमी भले बुश को अभी भा रही होगी, लेकिन बुश को यह जान लेना होगा कि जंग अभी खत्म नहीं हुई. बुश यह भी जान लें कि यजीद की फाैजों ने करबला में फरात नदी के पास जब निहत्थे इमाम हुसैन से कहा था कि वे उनकी बादशाहत कबूल कर लें तो हुसैन ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था. वह लडाई भी सत्ता की ही थी. तब यजीद भी बुश की तरह की ताकतवर था. सत्ता के नशे में मस्त वह अपना एक अलग एक अलग साम्राज्य कायम करना चाहता था. हुसैन के इनकार से वह उसी तरह तिलमिलाया था, जिस तरह बुश सद्दाम हुसैन के इनकार से तिलमिलाए थे. और यजीद ने करबला में हुसैन और उनके साथियों को उसी तरह कत्ल किया था, जिस तरह बुश ने इराक क़ो तबाह किया है. यज़ीद ने हुसैन और उनके साथियों पर पानी पीने तक का प्रतिबंध लगा दिया था. हुसैन के साथ भी बच्चे और औरतें थीं, जो यज़ीद की फौजों का शिकार बनीं. सब कुछ मिलता-जुलता है करबला की उस दास्तान से. यजीद उस एकतरफा जंग में कामयाब रहा था और इमाम हुसैन को शहीद कर अपनी सत्ता को विस्तार दिया था. बुश ने भी इराक क़े बर्बाद कर वहां अपनी एक अघोषित सत्ता स्थापित की है ताकि वहां के सिमसिम (तेल के कुंओं) पर और फिर एशिया के दूसरे देशों पर अपनी चौधराहट कायम रख सकें.लेकिन यजीद का हश्र बहुत बुरा हुआ था. कहा जाता है कि बाद में जब सत्ता पर दूसरे लोग काबिज हुए तो यजीद के खिलाफ उनके दिलों में इतनी नफरत थी कि उसकी मौत के बरसों बाद नए शासक ने उसकी कब्र खुदवा डाली और उसकी खोपडी क़ो निकाल कर नेजाें (भाला) पर उछाला गया. आज यजीद का कोई नाम लेने वाला भी नहीं है. बुश का अंजाम क्या होगा. फिलहाल हम में से किसी को यह मालूम नहीं लेकिन तानाशाहों, जालिमों और 'हिटलरों' का हश्र क्या होता रहा है. इससे हम सभी परिचित है. कंस से लेकर रावण तक और यजीद से लेकर हिटलर तक. इस सच को भला कौन झुठलाएगा. आप भी नहीं मिस्टर बुश. आतंकवाद के नाम पर की गई इस कार्रवाई से एक और आतंकवाद जन्म लेगा, इसमें किसी को संदेह हो तो हो, लेकिन मुझे नहीं हैं . क्योंकि हमले में मारे गए सैंकडाें लोगों के अलावा मासूम अली के कटे बाजू और उस जैसे न जाने कितने बच्चों की चीख अभी भी सुनाई पड रही है. यह चीख अाने वाले दिनों में अमेरिका से हिसाब मांगेगी.
इंसानियत और सभ्यता के खिलाफ लडी ग़ई इस लडाई में बगदाद जरूर तबाह हुआ. बसरा, नासीरिया, करबला और दूसरे शहर भी मलबे में बदल गए. लोग जख्मी हुए, मारे गए. लेकिन अमेरिकी फाैजें उस सभ्यता और संस्कृति का बाल भी बांका नहीं कर पाईं जो इराक में हजारों साल से जिंदा हैं. वह सभ्यता, वह संस्कृति जो हमारे भीतर भी न जाने कब से पोशीदा है और हमने बडे ज़तन से इन्हें संभाल रखा है इसे अगली पीढी क़ो सौंपने के लिए. बगदाद का काज़ी हो या बगदाद का चोर या फिर अलाउद्दीन और जिन सरीखे किरदार. ये नस्ल जिंदा हैं, अपनी पूरी जीवंतता के साथ. अली बाबा को कौन मार सकता है, मरजीना को कौन शहीद कर सकता है. जितना इराक ऌराकियों का है, उससे कहीं ज्यादा इराक भारतीयों का. हमारे भीतर एक पूरा इराक बसा हुआ है जो हमें अपनी दादी-नानी ने विरासत में दी और उन्हें उनकी दादी-नानियों ने दीं होंगी. और यह इराक तब तक हमारे अंदर जगमगता रहेगा, जब तक यह धरती रहेगी. बुश को यकीन हो या न हो लेकिन मुझे तो यकीन है कि अली बाबा और मरजीना आज भी जिंदा है. दादी की बातें मुझे याद आती हैं. बेतरह. दादी कहा करती थीं कि बुरे का अंजाम बुरा होता है. अली बाबा और मरजीना को तो जिंदा रहना ही है. मरना तो असफंदयार को है क्योंकि वह जालिम था. वे लोगों का गला काटता था, उन्हें लूटता था. बुश में मुझे असफंदयार का चेहरा नजर आता है. दादी की कही बातें सच होंगी. भले इसमें देर हो.
सिमसिम अभी बंद है. खुलने का इंतजार करें.

02 April 2008

आरक्षण का अपहरण-अभ्यास


श्यामल किशोर यादव

संविधान निर्माताओं ने आधुनिक भारत के निर्माण के लिए सामाजिक न्याय की संकल्पना की और तब आरक्षण का मन्तव्य एवं मकसद उनके लिए सामाजिक न्याय था. सामजिक न्याय का लाभार्थी वर्ग उन लोगों ने सामाजिक एंव शैक्षिक रूप से पिछडे वर्ग के लोगों को माना. कालान्तर में इसकी पहचान के लिए मंडल आयोग ने मापदण्ड तैयार किया और मापदण्ड के आधार पर भारत भर में 3743 जातियों को अन्य पिछडा वर्ग के रूप में चिन्हित कर ऐसे वर्ग समूह को सरकारी नौकरियों एवं सरकारी उपक्रमों में मात्र 27 प्रतिशत आरक्षण के अलावे अन्य रियायतों की अनुशंसा की जिसे आंशिक रूप से वीपी सिंह सरकार ने घोषणा कर लागू किया. हजारों साल से आरक्षण का लाभ भोग रहे भारतीय वर्ण व्यवस्था के
कर्णधारों ने सरकार के उक्त आचरण एवं आदेश को मेरिट व एक्सेलेंसी पर आघात बताया. परिणाम यह हुआ कि धर्मनिरपेक्ष भारत में जाति सापेक्ष नग्न प्रदर्शन किया जाने लगा. भाजपा समर्थित सरकार टूटी. मण्डल के खिलाफ कमण्डल वालों ने सोमनाथ से रथ यात्रा प्रारम्भ की और जिस अश्वमेध यज्ञ में उनकी पराजय बिहार के समस्तीपुर में हुई. केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी और पीवी नरसिंह राव की सरकार ने सामाजिक न्याय के दायरे में 10 प्रतिशत आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था लागू करने के लिए भिन्न सरकारी संशोधन का प्रस्ताव माननीय उच्चतम न्यायालय के समक्ष पेश किया. जिस कारण सिंह सरकार अल्पमत में आई उसका पुख्ता इंतजाम कांग्रेसी सरकार ने कर बाह्मणवादी सामाजिक वर्चस्व को कायम बनाए रखने का असफल प्रयत्न किया. शीर्ष पर स्थित आरोही क्रम के जाति समूह को शकुन लगा. पर भाग्यवादियों के भाग्य में ग्रहण लग चुका था- माननीय उच्चतम न्यायलय के 16 नवम्बर 1992 के फैसले ने सिंह सरकार के 13 अगस्त 1990 के निर्णय को वैध ठहराते हुए एंव नरसिंहा राव के दिनांक 25 सितम्बर 1991 के आर्थिक आधार पर दिए गए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था संबंधी संशोधित प्रस्ताव को पूर्णत: अवैध घोषित कर दिया. संविधान की उपयुक्त व्याख्या हुई और सामाजिक न्याय का अपहरण नहीं हो पाया. लेकिन सामाजिक और शैक्षिक पिछडे वर्ग समूह को आरक्षण का लाभ मिलने के लिए माननीय उच्चतम न्यायालय ने पिछडाें में अगडे क़ी पहचान अर्थात पिछडाें में मलाईदार परत वाले लोगों को चिन्हित कर आरक्षण के लाभ से अलग रहने का निर्देश दिया.
21 वीं सदी के प्रथम दशक का तीसरा वर्ष. सरकारी नौकरियां तो सिकुडती गई ताकि पिछडे वर्गों को विशेष अवसर के सिध्दान्त पर अधिकाधिक फायदे से रोका जाये. ईजाद यह किया जा रहा है कि पिछडे वर्ग की जगह अगडे में आर्थिक रूप से पिछडे वर्ग को विशेष अवसर का लाभ कैसे दिलाया जाए. आरक्षण राजनीति के इस खेल की शुरूआत राजस्थान के पिछडे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने गरीब सवर्णों को 14 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला करके की और उन्होंने इसे लागू करने के लिए केन्द्र से अनुमति भी मांगी है. देखा-देखी महाराष्ट्र में छगन भुजबल ने ऐसी ही पहल की है. मध्य प्रदेश सरकार ने अन्य पिछडे वर्गों के लिए 14 प्रतिशत से 27 प्रतिशत के आरक्षण बढाने की अधिसूचना जारी कर उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित अधिकतम सीमा से पार जाने की राजनीतिक कलाबाजी का प्रदर्शन कर आरक्षण का प्रतिशत 63 फीसदी करने का शौर्य दिखाया. और तो और अब राबडी सरकार भी यही चाहती है. इन तमाम कलाबाजियों का एक ही सबव है - विधान सभाओं एवं लोक सभा के आगामी चुनाव में आर्थिक रूप से पिछडाें का वोट बटोरना. भला केन्द्र सरकार आरक्षण राजनीति के इस खेल में पीछे कैसे रहती. स्वयंसेवक प्रधानमंत्री ने तो विगत 26 मई 2003 को भाजपा के राष्ट्रीय पदाधिकारियों की जयपुर की बैठक 24 मई में पारित प्रस्ताव के आलोक में देश भर के गरीब सवर्णों को 14 प्रतिशत आरक्षण देने की मांग हेतु एक राष्ट्रीय आयोग बनाने हेतु अपनी सहमति जताते हुए कैबिनेट में निर्णय लेने का आश्वासन दिया. और फिर 11 अगस्त को कैबिनेट की बैठक में इसकी रूपरेखा तैयार करने के लिए कैबिनेट स्तरीय उपसमिति के गठन की मंजूरी भी दे दी है.
प्रश्न उठता है कि केन्द्र सरकार का यह प्रयास क्या आरक्षण अपहरण का तो अभ्यास नहीं? संविधान में सन्निहित प्रावधानों के अन्तर्गत सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछडाें के लिए वीपी सिंह सरकार के फैसले कभी इस पार्टी के लिए नागवार गुजरी तो फिर आर्थिक आधार पर पिछडाें की पहचान कर आरक्षण देने की बात जिसे माननीय उच्चतम न्यायालय ने 1992 में ही खारिज कर अवैध घोषित कर दिया, के लिए यह हाय तौबा क्यों ?
संविधान निर्माताओं ने सिर्फ सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछडे लोगों के लिए लोक नियोजन में आनुपातिक विषमता को दूर करने के लिए विशेष अवसर के सिध्दान्त के आधार पर नये हिन्दुस्तान के निर्माण की योजना बनाई थी.नियोजन के क्षेत्र में पहले से ही सवर्णों का अनुपात ज्यादा है तो फिर क्यों असमानों को समान मानकर असमानता की खाई को पाटने के बजाय इसे शाश्वत करने का प्रयास किया जा रहा है? दूसरे, माननीय उच्चतम न्यायालय ने जब आर्थिक आधार पर आरक्षण को अवैध और असंवैधानिक घोषित किया है तो फिर केन्द्र सरकार क्यों कोर्ट के अवमानना के दायरे में आना चाहती है; संविधान सम्मत प्र्रावधानों से भिन्न अगडे में पिछडे क़ी खोज के क्या मायने हैं? भाजपा सरकार राष्ट्रीय स्वास्थ्य के लिए दिनाेंदिन हानिकारक होती जा रही है. 16 नवम्बर 1992 के कोर्ट के निर्णय को मानना केन्द्र का राजधर्म है. अन्यथा इसे आरक्षण अपहरण का अभ्यास मात्र ही माना जायगा. सामाजिक न्याय गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम नहीं है - हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए. ऐसा कोई भी सरकारी प्रयास सामाजिक न्याय के धरातल को कमजोर ही करेगा.
'मंडल विचार' का आगाज हो रहा है. मंडल के अनेकार्र्थ हैं. लेकिन व्यापकता में मंडल शोषणकारी मनुवादी व्यवस्था के बरक्स आज 'सामाजिक न्याय' का पर्याय हो गया है. इसलिए मंडल का विचार सामाजिक न्याय के रास्ते सामाजिक समरसता का विचार है.यह उस मौन क्रांति को सलाम व स्वीकृति है जिस दिशा में एक बडी छलांग वीपी सिंह सरकार ने लगभग डेढ दशक पूर्व लगायी थी.राष्ट्रीय एकता के निमित्त कर्तव्य के अनुपालन एवं सामाजिक न्याय सिध्दान्त के प्रवर्तन हेतु जन-जागृति पैदा करना 'मंडल विचार' पत्रिका की नीति होगी.प्रवेशांक को आपके हाथों सौंपते कदाचित् 'स्वान्त: सुखाय' की अनुभूति हो रही है. आपका नीर-क्षीर-विवेक सर आंखों पर!

(मंडल विचार के प्रथम अंक का संपादकीय)