03 April 2008

बंद है सिमसिम

फज़ल इमाम मल्लिक

फिर क्या हुआ दादी अम्मां?
अली बाबा और मरजीना को डाकुओं के सरदार ने मार दिया? डाकुओं के सरदार के अलीबाबा के घर भेस बदल कर आने की बात कहते-कहते दादी अम्मां अचानक कहानी कहते-कहते अक्सर रूक जातीं. कहानी के इस पडाव पर थोडा सा दम लेने के लिए वह ठहरतीं तो हम सभी की उत्सुकता उन्हें फिर से कहानी शुरू करने के लिए प्रेरित करती.यूं भी दादी अम्मां का इस जगह आकर ठहरना हमें काफी अखरता था क्योंकि उस समय तक हम बगदाद की गलियों से गुजरते हुए अलीबाबा के मकान में पहुंच चुके होते जहां मरजीना थी, अलीबाबा थे और चोरों का सरदार असफंदयार था. तेल की मटकियां थीं, जिनमें तेल की जगह चालीस चोर थे और वे अलीबाबा से बदला लेने के लिए वहां पहुंचे थे. अलिफ लैला की इस कहानी को हम पता नहीं दादी अम्मां से कितनी बार सुन चुके थे लेकिन हर बार सुनते हुए लगता कि हम कहानी पहली बार सुन रहे हैं. इसलिए जहां दादी अम्मां पान खाने या सांस लेने के लिए थोडा भी ठहरतीं सारे बच्चे उन्हें फौरन कहानी पूरा करने के लिए कहते. कोई ठुनकता, कोई जिद करता और कोई शोर मचाता. दादी अम्मां भी हम लोगों की शरारतों पर हंसती हुई कहानी के सिरे को वहीं से थामतीं जहां उसे छोडा था.
नहीं बेटा मरजीना बहुत चालाक लडक़ी थी. उसने देख लिया था कि मटके में तेल नहीं है. और तेल व्यापारी के भेस में डाकू असफंदयार है और जो मटके वह साथ लाया था उसमें तेल नहीं बल्कि उसके चालीस साथी हैं. दादी अम्मां फिर मरजीना की चालाकी से चालीस चोरों और उसके सरदार के मार जाने की बात कहती हुई सभी को नसीहत देतीं, तो बच्चों! एक बात जान लो बुरे का अंजाम हमेशा बुरा होता है. चालीस चोर और उसका सरदार ज़ालिम था, वह लोगों को लूटता था तो इसका अंजाम तो यह होना ही था.
लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्लू बुश को उसकी दादी मां ने यह कहानी नहीं सुनाई होगी. अगर सुनाई होती तो बसरा, नासीरिया, मसूल, कर्बला और बगदाद में उनके विमान हजारों मासूमों को बमों का निशाना न बनाते. उनके हवाई जहाज बेकसूर-मजलूमों के सर से छत नहीं छीनते और उनकी मिजाइलें बच्चों-बूढों को अपंग नहीं बनाती. लेकिन इराक में ऐसा हुआ और तबाही का एक ऐसा खेल खेला गया जो सालों पहले उसी बगदाद में कभी यजीद ने खेला था. सत्ता के लिए मजलूमों का गला यजीद ने भी काटा और लहू बुश ने भी बहाया है. इस्लामी आतंकवाद का हव्वा खडा कर पूरे विश्व में अपनी दादागिरी साबित करने के लिए बुश का इराक पर हमला दरअसल इंसानियत और सभ्य समाज पर ही हमला था. पूरा विश्व एक तरफ और बुशव कुछ देश एक तरफ. विश्व और संयुक्त राष्ट्र को ठेंगे पर रख कर बुश ने इराक पर हमला किसी आतंकवाद को खत्म करने के लिए नहीं किया था. मानते हैं कि सद्दाम हुसैन तानाशाह थे. वे जालिम थे, वे लोगों पर जुल्म ढाते थे. उनके यातनागृह में सैंकडाें लोगों का कत्ल किया गया है. लेकिन बुश कौन से दूध के धुले हैं. विश्व में आतंकवाद को बढावा देने में अमेरिका का कम हाथ तो नहीं है. जूनियर हों या सीनियर, बुश से बडा आतंकवादी कौन हो सकता है भला. विश्व में आतंकवाद के नाम पर जिस तरह का बर्ताव दूसरे देशों के साथ वे कर रहे हैं वह किसी तानाशाह से कम है क्या.
यजीद को भी सत्ता और शक्ति का घमंड था और घमंड में चूर उसने इराक क़े ही कर्बला में इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों को फरात नदी के पास लगभग बंदी बना लिया था और फिर पहली मुहर्रम से चली यह लडाई दसवीं
मुहर्रम को खत्म हो गई थी. इमाम हुसैन शहीद कर डाले गए थे. बच्चे और औरतों को भी यजीद ने नहीं बख्शा था और उसने अरब मुल्कों में अपनी बादशाहत का एलान कर दिया था.
वह मुहर्रम का ही महीना था जब बुश की सेनाओं ने इराक पर हमला बोला था और सत्ता व शक्ति के दंभ में मदमस्त बुश ने सद्दाम हुसैन और उनके अनुयाइयों के खिलाफ निर्णायक लडाई छेड दी थी. सच तो यह है कि इसे जंग कहा भी नहीं जा सकता. यह तो एक बर्बर और तानाशाह की एकतरफा कार्रवाई थी. जो सत्ता और शक्ति के नशे में चूर पूरे विश्व को अपनी ठोकरों पर रखने का सपना अपनी आंखों में पाले हुए था. आधुनिक हथियार, बख्तरबंद गाडियां, युध्दपोतों, मिजाइलों, कलस्टर बमों, विमानों से लैस विश्व की सबसे ताकतवर सेना ने एक छोटे से देश को चारों तरफ से घेर कर 'बडी सफलता' की बिसात बिछा ली थी. टीवी पर इराक में दौडती बख्तरबंद गाडियों और विमानों को बम बरसाते देख कर यजीद की याद ही आती रही. कर्बला से बगदाद तक एक तबाही का मंजर ही नजर आता है और ठीक दूसरी तरफ व्हाइट हाउस में जार्ज बुश सब कुछ ठीक होने का दावा करते हुए विश्व के नक्शे में कोई दूसरा देश तलाश रहा होता है. वह तुर्की हो सकता है, ईरान या भारत भी. लेकिन देर या सवेर एक और देश बुश की बर्बरता का शिकार होगा. अभी तो ऐसा ही दिखाई दे रहा है
बगदाद, बसरा, कर्बला या इराक क़े दूसरे शहर तो न जाने मेरे भीतर कब से मौजूद थे. शहरजाद-जहांजाद और कहानी सुनने के शौकीन बादशाह के किस्से सुन-सुन कर तो हमारा बचपन बीता था. अमेरिका और ब्रतानवी फाैजें जब बसरा, बगदाद पर बम बरसा रही थी. और मिजाइलों के निशाने पर इराकी अवाम थे तब मुझे वह बादशाह( जिनका नाम शायद शहरयार था) काफी शिद्दत से याद आ रहे थे. याद आ रही थीं अलिफ लैला की कहानियां, उन कहानियों के किरदार और इराक क़ी संस्कृति सभ्यता का इतिहास. वह इतिहास जो हमें हमारे बुजुर्गों ने छुटपन में ही हमें बताया है. घोघो रानी से लेकर एक था राजा-एक थी रानी और सिंदबाद से लेकर अल्लादीन और जिन की कथाओं के बीच ही पांव-पांव चलना सीखा और फिर इन कहानियों की छांव में ही पले-बढे. उन दिनों तब न तो कोई हीमैन था और न ही कोई स्पाइडरमैन और न शक्तिमान. हमारे हीरो तब अल्लादीन और अली बाबा ब मरजीना ही हुआ करते थे. अलिफ लैला की एक चमत्कारिक दुनिया थी जहां सब कुछ अपना-अपना सा लगता था और किताबों में 'अली बाबा ऐंड फोर्टी थीव्स' की कथा पढते हुए हमें वह रोचकता दिखाई नहीं पडती थी जो मजा दादी मां के अली बाबा और चालीस चोरों की कहानी सुनाने में था. इन किरदारों को न जाने कितनी बार हमने अपने भीतर-बाहर जिया है, यह याद नहीं. और सच तो यह है कि यह किरदार आज भी हमारे भीतर कहीं मौजूद हैं, पूरी जीवंतता के साथ.
अलिफ लैला की वह कहानियां सिर्फ कहानी भर तो नहीं है. इस सच को बुश या टोनी ब्लेयर तो नहीं समझ सकते. उन्हें तो तेल और तेल की के दिन बहुत थोडे होते हैं. और संस्कृति-सभ्यता को न तो उनके विमान मिटा सकते हैं और न ही मिसाइलें. लेकिन समय उन्हें जरूर उनको मिटा देगा.
निरपराध और निहत्थे लोगों का गला काटना और जुल्म ढाना किसी भी कौम ने नहीं सिखाया है.बच्चों और मजलूमों की आंसुओं की बात करने वाले बुश को आतंकवाद की सुध तब आई जब उनके खुद के घर में आग लगी. नहीं तो यह वही अमेरिका है जिसने ओसामा बिन लादेन को पैदा किया. इस्लामी आतंकवाद की दुहाई देने वाले बुश या अमेरिका को कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों की भी सुध लेने की फुर्सत नहीं मिली. लेकिन जब उनकी दो इमारतों को उनके ही विमानों के सहारे आतंकवादियों ( हालांकि अभी यह पुख्ता सबूत नहीं मिला है कि इस कार्रवाई के पीछे किसका हाथ है) ने मलबे के ढेर में बदल दिया तब उन्हें आतंकवाद की परिभाषा समझ में आई.
लेकिन यह भी अजब इत्तफाक है कि अली बाबा और चालीस चोरों की कहानी कई फेरबदल के साथ बुश पर बिल्कुल फिट बैठती है. आखिर सिससिम के खुलने का इंतजार तो है बुश को. सिमसिम यानी तेल के कुएं से खज़ाने को भरना.अलीबाबा की कहानी में भी तेल व्यापारी का जिक्र तो आया ही है. यानी तेल तब भी था और तेल अब भी है. बाकी का सारा खूनखराबा तो इस जंग को जायज़ ठहराने के लिए बुश की दिमाग क़ी ही उपज है.ठीक उस बादशाह की तरह जिसे कहानियां सुनने का शौक था और इस शौक क़े लिए वह किसी की गर्दन भी उडा देता था और इस के पीछे उसका अपना तर्क था.
अलिफ लैला की कहानियां सुनते हुए अक्सर इराक क़ी गलियां और वहां का एक जादुई संसार आंखों में बस जाता था. यह संसार आज भी हमारे भीतर कहीं है. इन कहानियों के किरदारों में अक्सर अपने आप को देखते हुए बालपन की गलियों से निकल कर जवानी की दहलीज पर हम ने पांव धरा. लेकिन अलिफ लैला की कहानियां और बादशाह शहरयार आज भी हमारे सामने पूरी जीवंतता के साथ मौजूद है. इसी बादशाह की बदौलत ही तो अलिफ लैला का जादुई संसार हमारे भीतर एक नई दुनिया को आबाद कर गया. बादशाह न होता और उसे हर रात नई कहानियों सुनने का जुनून न होता तो न तो यह कहानियां होतीं और न ही वे किरदार जिनके बीच हमारा बचपन गुजरा है. बादशाह के वजीर की बेटी शहरजाद और जहांजाद ने उस सनकी बादशाह को हर रात एक नई कहानी सुना कर साहित्य में किस्सागोई की पंरपरा को एक नया आयाम दिया था. एक हजार एक रातें और इतनी ही कहानियां. 'बगदाद का चोर' हो या 'बगदाद का काजी' या फिर दूसरी कहानियां, इन कहानियों के नायक या खलनायक किसी न किसी रूप में मौजूद है. इराक पर एकतरफा लडाई में हमने इन खलनायकों को देखा है. व्हाइट हाउस में बोलते हुए, अपनी फाैजों को बेकसूर और असहाय लोगों पर बम बरसाने का आदेश देते हुए और दूसरे देशों को धमकाते हुए. अलिफ लैला की इन कहानियों ने ही शायद हमारी दादी-नानियों को भी कहानी सुनाने के लिए प्रेरित किया होगा. रात में कहानियां कहने और सुनाने का सिलसिला पता नहीं कब शुरू हुआ होगा.लेकिन हमने अपनी दादी-नानियों से रातों में खूब कहानियां सुनी हैं. दिन में कोई कहानी नहीं सुनाता था. दिन में हम सब जब कभी कहानी सुनने की जिद करते, दादी या फिर मां हम बच्चों के डांट देतीं. कहतीं, दिन में कहानी नहीं सुनाई जाती, मुसाफिर रास्ता भूल जाते हैं. अब रात में कहानियों का चलन खत्म हो गया है और हमारी दादी-नानियों की कहानी के किरदार कहीं गुम हो गए हैं. अब दिन में ही टीवी के बक्से हमें तरह-तरह की कहानियां सुनाते हैं और सिर्फ मुसाफिर ही नहीं, समाज, देश और विश्व रास्ता भटक गया. पहले अफग़ानिस्तान, फिर अयोध्या और अब इराक में हमने इसे देखा है.
लेकिन सिमसिम तो इतना कुछ होने के बाद भी बंद ही है. हालांकि बुश कोशिश में जुटे हैं कि सिमसिम खुले और वे असफंदयार की तरह तेल के कुंओं पर अपना कब्जा जमा कर अपना घर भरें. इस्लामी आतंकवाद का ढिंढोरा पीटने वाले बुश भले अपनी पीठ थपथपा रहे हों लेकिन पहले अफग़ानिस्तान और अब इराक पर की गई उनकी बर्बर कार्रवाई से आने वाले दिनों में निपटना उनके लिए आसान नहीं होगा. आतंकवाद की बात करते हुए इजराइल की पीथ थपथपाने वाले बुश को फिलिस्तीनियों का दुख दिखाई नहीं देता है क्योंकि यहां आकर आतंकवाद की परिभाषा बदल जाती है. इराक क़ी सडक़ों और गलियों में बर्बर अमेरिकी फौजों की चहलकदमी भले बुश को अभी भा रही होगी, लेकिन बुश को यह जान लेना होगा कि जंग अभी खत्म नहीं हुई. बुश यह भी जान लें कि यजीद की फाैजों ने करबला में फरात नदी के पास जब निहत्थे इमाम हुसैन से कहा था कि वे उनकी बादशाहत कबूल कर लें तो हुसैन ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था. वह लडाई भी सत्ता की ही थी. तब यजीद भी बुश की तरह की ताकतवर था. सत्ता के नशे में मस्त वह अपना एक अलग एक अलग साम्राज्य कायम करना चाहता था. हुसैन के इनकार से वह उसी तरह तिलमिलाया था, जिस तरह बुश सद्दाम हुसैन के इनकार से तिलमिलाए थे. और यजीद ने करबला में हुसैन और उनके साथियों को उसी तरह कत्ल किया था, जिस तरह बुश ने इराक क़ो तबाह किया है. यज़ीद ने हुसैन और उनके साथियों पर पानी पीने तक का प्रतिबंध लगा दिया था. हुसैन के साथ भी बच्चे और औरतें थीं, जो यज़ीद की फौजों का शिकार बनीं. सब कुछ मिलता-जुलता है करबला की उस दास्तान से. यजीद उस एकतरफा जंग में कामयाब रहा था और इमाम हुसैन को शहीद कर अपनी सत्ता को विस्तार दिया था. बुश ने भी इराक क़े बर्बाद कर वहां अपनी एक अघोषित सत्ता स्थापित की है ताकि वहां के सिमसिम (तेल के कुंओं) पर और फिर एशिया के दूसरे देशों पर अपनी चौधराहट कायम रख सकें.लेकिन यजीद का हश्र बहुत बुरा हुआ था. कहा जाता है कि बाद में जब सत्ता पर दूसरे लोग काबिज हुए तो यजीद के खिलाफ उनके दिलों में इतनी नफरत थी कि उसकी मौत के बरसों बाद नए शासक ने उसकी कब्र खुदवा डाली और उसकी खोपडी क़ो निकाल कर नेजाें (भाला) पर उछाला गया. आज यजीद का कोई नाम लेने वाला भी नहीं है. बुश का अंजाम क्या होगा. फिलहाल हम में से किसी को यह मालूम नहीं लेकिन तानाशाहों, जालिमों और 'हिटलरों' का हश्र क्या होता रहा है. इससे हम सभी परिचित है. कंस से लेकर रावण तक और यजीद से लेकर हिटलर तक. इस सच को भला कौन झुठलाएगा. आप भी नहीं मिस्टर बुश. आतंकवाद के नाम पर की गई इस कार्रवाई से एक और आतंकवाद जन्म लेगा, इसमें किसी को संदेह हो तो हो, लेकिन मुझे नहीं हैं . क्योंकि हमले में मारे गए सैंकडाें लोगों के अलावा मासूम अली के कटे बाजू और उस जैसे न जाने कितने बच्चों की चीख अभी भी सुनाई पड रही है. यह चीख अाने वाले दिनों में अमेरिका से हिसाब मांगेगी.
इंसानियत और सभ्यता के खिलाफ लडी ग़ई इस लडाई में बगदाद जरूर तबाह हुआ. बसरा, नासीरिया, करबला और दूसरे शहर भी मलबे में बदल गए. लोग जख्मी हुए, मारे गए. लेकिन अमेरिकी फाैजें उस सभ्यता और संस्कृति का बाल भी बांका नहीं कर पाईं जो इराक में हजारों साल से जिंदा हैं. वह सभ्यता, वह संस्कृति जो हमारे भीतर भी न जाने कब से पोशीदा है और हमने बडे ज़तन से इन्हें संभाल रखा है इसे अगली पीढी क़ो सौंपने के लिए. बगदाद का काज़ी हो या बगदाद का चोर या फिर अलाउद्दीन और जिन सरीखे किरदार. ये नस्ल जिंदा हैं, अपनी पूरी जीवंतता के साथ. अली बाबा को कौन मार सकता है, मरजीना को कौन शहीद कर सकता है. जितना इराक ऌराकियों का है, उससे कहीं ज्यादा इराक भारतीयों का. हमारे भीतर एक पूरा इराक बसा हुआ है जो हमें अपनी दादी-नानी ने विरासत में दी और उन्हें उनकी दादी-नानियों ने दीं होंगी. और यह इराक तब तक हमारे अंदर जगमगता रहेगा, जब तक यह धरती रहेगी. बुश को यकीन हो या न हो लेकिन मुझे तो यकीन है कि अली बाबा और मरजीना आज भी जिंदा है. दादी की बातें मुझे याद आती हैं. बेतरह. दादी कहा करती थीं कि बुरे का अंजाम बुरा होता है. अली बाबा और मरजीना को तो जिंदा रहना ही है. मरना तो असफंदयार को है क्योंकि वह जालिम था. वे लोगों का गला काटता था, उन्हें लूटता था. बुश में मुझे असफंदयार का चेहरा नजर आता है. दादी की कही बातें सच होंगी. भले इसमें देर हो.
सिमसिम अभी बंद है. खुलने का इंतजार करें.

1 comment:

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

आपने फंतासी को यथार्थ से बहुत ही सुन्दर ढंग से जोडा है। बधाई।
और हाँ एक निवेदन- कृपया कमेंट बॉक्स से वर्ड वेरीफिकेशन हटा दें, इससे इरीटेशन होती है।