14 April 2008

सामाजिक समरसता के सपने का सच

- दयानन्द

संसार के प्रत्येक भाग में समाज को व्यवस्थित करने एवं मानव जीवन को गरिमामय बनाने के लिए एक विचारधारा की आवश्यकता होती है. आदिकाल में संबधित विचारधारा को दर्शन का नाम दिया गया और उसमें प्रगति एवं शांति के लिए मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे नियम कानून कायदे निरूपित कर दिये गये जिसे हम धर्मशास्त्र के नाम से जानते हैं. दर्शन का निर्माण काल परिस्थिति आदि के आधार पर होता है. समय के अनुसार समाज, शासन एवं धर्म में परिवर्तन होता रहता है.ग्रामीण लोकोक्ति है कि रमता जोगी बहता पानी. लेकिन दु:ख की बात है कि लोकतंत्र में दर्शन के प्राचीन स्वरूप को बदलने का प्रयास आवाम के द्वारा नहीं किया गया क्योंकि दर्शन हमारे सामाजिक जीवन को आचार, विचार, संस्कार एवं त्योहार के रूप में जाकर देखता है.परिणामस्वरूप हम रूढिवादी, परम्परावादी, अन्धविश्वासी बन गये हैं जिसके चलते हमारे जीवन में समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व का अभाव हो गया है. दुनिया का कोई दर्शन बिना राज्य सत्ता का सहारा लिए विस्तृत क्षेत्रों में फैल नहीं सका. इसलिए भारत जैसे देश में यह काम लोकतांत्रिक व्यवस्था के माध्यम से किया जा सकता है. लेकिन दु:ख की बात है कि आज के राजनेता दर्शन को राजनीति शास्त्र का विषय वस्तु मानने से इन्कार करते हैं जो एक भयंकर भूल है. महात्मा गांधी, विश्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर, अम्बेडकर, लोहिया धार्मिक दर्शन को राजनीति का अभिन्न अंग मानते थे. गांधी जी के शब्दों में, 'मैं उस समय तक धार्मिक जीवन व्यतीत नहीं कर सकता था जबतक कि मैं स्वयं को संपूर्ण मानवता के साथ एकीकृत न कर लेता और यह काम मैं उस समय तक नहीं कर सकता था जब तक कि राजनीति में भाग नहीं लेता.' समाज में सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए संपूर्ण बदलाव की अनिवार्यता है. संपूर्ण बदलाव के लिए सांस्कृतिक क्रांति आवश्यक है. सन् 1930 में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने देश वासियों सेकहा था- 'हमारे देश को जीन जंजीराें में जकड रखा गया है. उनपर बार बार प्रहार करके हमें उन्हें तोडना होगा. प्रत्येक संघर्ष पीडा से भरपूर होता है किंतु गुलामी के बंधन से मुक्त होने का दूसरा उपाय नहीं है. सामाजिक समरसता कायम करने के लिए मानसिक परिवर्तन की जरूरत है. मानसिक परिवर्तन के लिए सांस्कृतिक परिवर्तन आवश्यक है. सांस्कृतिक परिवर्तन को समझने के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था ब्राह्मणवादी व्यवस्था की समाजशास्त्रीय एवं वैज्ञनिक व्याख्या जरूरी है. मनुष्य की उत्पत्ति के संबंध में वेद गीता, रामायण आदि में भिन्न-भिन्न बातें बतायी गयी है. वर्णाश्रम व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था न होकर सुविधा, अधिकार एवं विशेषाधिकार की व्यवस्था है. यह एक हीनता का दर्शन है. भारतीय समाज के साथ गहरी साजिश है क्योंकि वेद अध्ययन स्त्री, शूद्र एवं पतित ब्राह्मण के लिए मना है. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 1992 के मंडल आयोग संबंधी फैसले में टिप्पणी की थी कि इस देश में समूचे अर्थ तंत्र, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्ांस्कृति और उद्योग पर सिर्फ दस प्रतिशत लोग काबिज हैं. ब्राह्मणवादी व्यवस्था में हिन्दुस्तान के जाने माने राजनेता, साहित्यकार, विद्वान, लेखक अधिकारी को अपमानित किया गया है. जैसे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों द्वारा राष्ट्रनायक वीर शिवाजी का राज्याभिषेक से इन्कार देने पर उन्होंने बनारस से गंगाभट नाम ब्राह्मण से धनबल से राज्याभिषेक कराया परंतु तिलक पैर के अंगूठे से लगाया. 'रामचरित मानस' के रचयिता ब्राह्मण श्रेष्ठ तुलसीदास को अयोध्या में ब्राह्मणों द्वारा पत्थरों से मारे गये और उन्हें बाबरी मस्जिद में आश्रय लेना पडा था. तुलसीदास ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा था- 'मांगिक खाइबो मसीत में सोइबो.'
रवीन्द्रनाथ टैगोर को पीरल्ली जातीय होने के कारण जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश से रोक दिया गया था. मद्रास में त्रावणकोर में बेकोम स्थान पर मंदिर निर्माण के कारण आस-पास से अछूतों को गुजरने पर प्रतिबन्ध था. उस क्षेत्र में अगर कोई अछूत गलती से भी मंदिर की गलियों में आ जाता था तो ब्राह्मण उसकी हत्या कर देते थे. 9 मई 1925 को गांधी बाइकम गये और पेरियार को सलाह दी-' हमें ब्राह्मण से टकराव की स्थिति नहीं पैदा करनी चाहिए. मंदिर में अछूतों के प्रवेश के प्रश्नों पर जोड नहीं देना चाहिए यदिमंदिर के आस-पास की सडक़ों और गलियों में आने-जाने का अधिकार अछूतों को मिल जाता है तो हमें उस पर भी ही संतोष कर लेना चाहिए कि अछूतों को सडक़ पर चलने का अधिकार मिल गया. श्री राम कथा ज्ञान समिति भागलपुर द्वारा बूढा नाथ परिसर में आयोजित राम कथा के दौरान जगदगुरू शंकराचार्य ने कहा, 'शूद्रों के यह भोजन नहीं करना चाहिए. शूद्र होना जन्मना है जन्म से ही कोई शूद्र होता है और सवर्ण तमाम अभावों के बावजूद पुरोहित नरश्रेष्ठ है( दैनिक अखबार हिन्दुस्तान-पटना 25 अक्टूबर 2002). तारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद ने गठबंधन सरकार के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए कहा था कि क्षेत्रीय दलों को लोक सभा का चुनाव लडने की अनुमति नहीं देनी चाहिए( हिन्दुस्तान पटना 21 सितम्बर 1999). स्व रामचन्द्र अध्यक्ष राम मंदिर निर्माण न्यास समिति ने फैजाबाद के आयुक्त को शिलादान करने से इंकार कर दिया.
समतामूलक समाज व्यवस्था के लिए एवं समाजिक परिवर्तन हेतु व्यस्क मताधिकार एवं लोकतंत्र ही सबसे सबल उपाय है. व्यस्क मताधिकार से संपन्न बहुजन समाज जो वर्ण व्यवस्था की सतायी हुई्र है इस व्यवस्था को बदल सकता है.संविधान ने रास्ता बनाया है यदि पचासी प्रतिशत आबादी की ओर से संगठित राजनीतिक प्रयास होता तो काफी हद तक सफलता मिली होती. लेकिन यह काम नहीं हुआ.दलित अनेक घरों में बांट दिए गये. छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए वे उन्हीं लोगों से समझौता करते रहे जो उनकी दुर्दशा के लिए जिम्मेवार थे. दि्ज अद्विज के संघर्ष को शूद्र - दलित संघर्ष में बदलकर उन्होंने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ चल रहे संघर्ष को कमजोर कर दिया और द्विजों की शाश्वत सत्ता के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया. यदि शूद्र समाज राजनीतिक दल बनाकर एक सूत्र में बंध जाये तो सामाजिक समरसता को कायम करने में सहायता मिलेगी.सभी बंद ताले खुलते हैं. सामाजिक समरसता कायम करने हेतु लोकतंत्र एवं व्यस्क मताधिकार के शक्ति को पहचानना होगा क्योंकि स्वतंत्र भारत में जो कुछ सामाजिक समरसता की गति तेज हुई है वह लोकतंत्र की देन है.

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